Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व t३०१ . करते। वे एकान्त प्रक्रियावादी बन जाते हैं। भगवान् महावीर ने इसे वाणी । का वीर्य या वाचनिक आश्वासन कहा है .
सम्यग दृष्टि के पाप का बन्ध नहीं होता या उसके लिए कुछ करना शेष नहीं रहता-ऐसी मिथ्या धारणा न बने, इसीलिए चतुर्थ भूमिका के अधिकारी को अधी ,१४ वाल'५ और सुत कहा है ॥
"जानामि धर्म न च मे प्रवृतिः
जनाम्यधर्म न च मे निकृतिः" "धर्म को जानता हूँ, पर उसमें प्रवृति नहीं है, अधर्म को भी जानता हूँ पर उससे निवृत्ति नहीं है।"-यह एक बहुत बड़ा तथ्य है। इसका पुनरावर्तन प्रत्येक जीव में होता है। यह प्रश्न अनेक मुखों से मुखरित होता रहता है कि “क्या कारण है, हम बुराई को बुराई जानते हुए भी-समझते हुए भी छोड़ नहीं पाते ?" जैन कर्मवाद इसका कारण के साथ समाधान प्रस्तुत करता है। वह यू है - जानना ज्ञान का कार्य है । शान 'शानावरण' के पुद्गलों का विलय होने पर प्रकाशमान होता है। सही विश्वास होना श्रद्धा है। वह दर्शन को मोहने वाले पुद्गलों के अलग होने पर प्रगट होती है बुरी वृत्ति को छोड़ना, अच्छा आचरण करना-यह चारित्र को मोहने वाले पुद्गलों के दूर होने पर सम्भव होता है।
ज्ञान के आवारक पुद्गलों के हट जाने पर भी दर्शन-मोह के पुद्गल भारमा पर छाए हुए हों तो वस्तु जान ली जाती है, पर विश्वास नहीं होता। दर्शन को मोहने वाले पुद्गल बिखर जाए, तब उस पर श्रद्धा बन जाती है । पर चारित्र को मोहने वाले पुद्गलों के होते हुए उसका स्वीकार (या आचरण) नहीं होता। इस दृष्टि से इनका क्रम यह बनता है-(१)ज्ञान, (२)श्रद्धा (३)चारित्र। ज्ञान श्रद्धा के बिना भी हो सकता है पर श्रद्धा उसके बिना नहीं होती। श्रद्धा चारित्र के बिना भी हो सकती है, पर चारित्र उसके बिना नहीं होता। अतः वाणी और कर्म का दूध (कथनी और करनी का अन्तर) जो होता है, वह निष्कारण नहीं है। ज्यों साधना आगे बढ़ती है, चारित्र का भाव प्रगट होता है, त्यों द्वेष की खाई पटची जाती है पर वह बास्थ-वशा (ममत-वग्रा) में पूरी नहीं पटती।