Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व ३०५ लिए है। अहिंसा ही धर्म है। शेष महावत उसको मुरक्षा के लिए हैं। यह विचार उत्तरवती संस्कृत साहित्य में बहुत दृढ़ता से निरूपित हुआ है।
धर्म का मौलिक रूप सामायिक चारित्र या समता का श्राचरण है। अहिंसा, सत्य आदि उसी की साधना के प्रकार हैं। समता का अखंड रूप एक अहिंसा महाव्रत में भी समा जाता है और भेद-दृष्टि से चलें तो उसके पाँच और अधिक मेद किये जा सकते हैं। अप्रमाद
यह सातवी भूमिका है। छठी भूमिका का अधिकारी प्रमत्त होता हैउसके प्रमाद की सत्ता भी होती है और वह कहीं-कहीं हिंसा भी कर लेता है। सातवीं का अधिकारी प्रमादी नहीं होता, सावद्य प्रवृत्ति नहीं करता। इसलिए अप्रत्त-संयती को अनारम्भ-अहिंसक और प्रमत्त-संयती को शुभ-योग की अपेक्षा अनारम्भ और अशुभ-योग की अपेक्षा आत्मारम्भ (आत्म-हिंसक) परारम्भ (पर-हिंसक) और उभयारम्भ ( उभय-हिंसक ) कहा है। श्रेणी-आरोह और अकषाय या वीतराग-भाव
आठवीं भूमिका का आरम्भ अपूर्व-करण से होता है। पहले कभी न पाया हो, वैसा विशुद्ध भाव आता है, आत्मा 'गुण-श्रेणी' का आरोह करने लगता है। आरोह की श्रेणियां दो हैं-उपशम और क्षपक। मोह को उपशान्त कर आगे बढ़ने वाला ग्यारहवीं भूमिका में पहुंच मोह को सर्वथा उपशान्त कर वीतराग बन जाता है। उपशम स्वल्पकालीन होता है, इसलिए मोह के उभरने पर बह वापस नीचे की भूमिकाओं में आ जाता है। मोह को खपाकर आगे बढ़ने वाला बारहवीं भूमिका में पहुंच वीतराग बन जाता है। क्षीण मोह का अवरोह नहीं होता। केवली या सर्व ___ तेरहवीं भूमिका सर्व-ज्ञान और सर्व-दर्शन की है। भगवान् ने कहा-कर्म का मूल मोह है। सेनानी के भाग जाने पर सेना भाग जाती है, वैसे ही मोह के नष्ट होने पर शेष कर्म नष्ट हो जाते हैं। मोह के नष्ट होते ही शन और दधन के आवरण तथा अन्तराय-ये तीनों कर्म-बन्धन टूट जाते हैं। आत्मा