Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व निरावरण और निरन्तराय बन जाता है। निराबरण आत्मा को ही सर्वश
और सर्वदशी कहा जाता है। अयोग-दशा और मोक्ष
केवली के भवोपनाही कर्म शेष रहते हैं। उन्हीं के द्वारा शेष जीवन का धारण होता है। जीवन के अन्तिम क्षणों में मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों का निरोध होता है। यह निरोध दशा ही अन्तिम भूमिका है। इस काल में वे शेष कर्म टट जाते हैं। आत्मा मुक्त हो जाता है-आचार स्वभाव में परिणत हो जाता है। साधन स्वयं साध्य बन जाता है। ज्ञान की परिणति
आचार और प्राचार की परिणसि मोक्ष है और मोक्ष ही आत्मा का स्वभाव है।