Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
View full book text
________________
३००
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व बनता है। उस संक्रमण काल में यह स्थिति बनती है। पेड़ से फल गिर गया
और जमीन को न छू पाया-ठीक यही स्थिति इसकी है। इसीलिए इसका कालमान बहुत थोड़ा है (छह श्रावलिका मात्र है)।
तीसरा स्थान मिश्र है। इसका अधिकारी न सम्यग् दर्शनी होता है और न मिथ्या-दर्शनी। यह संशयशील व्यक्ति की दशा है। पहली भूमिका का अधिकारी दृष्टि-विपर्यय वाला होता है, इसका अधिकारी संशयालु यह दोनों में अन्तर है । दोलायमान दशा अन्तर्-मुहूर्त से अधिक नहीं टिकती। फिर वह या तो विपर्यय में परिणित हो जाती है या सम्यग दर्शन में। इन श्राध्यात्मिक अनुत्क्रमण को तीनों भूमिकाओं में दीर्घकालीन भूमिका पहली ही है। शेष दो अल्पकालीन हैं। सम्यग् दर्शन उत्क्रान्ति का द्वार है, इसीलिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है । आचार की दृष्टि से उसका उतना महत्त्व नहीं, जितना है कि इससे अगली कक्षाओं का है। कर्म-मुक्त होने की प्रक्रिया है---आने वाले कर्मोका निरोध (संवरण) और पिछले कर्मों का विनाश (निर्जरण)। सम्यग-दर्शनी के विरति नहीं होती, इसलिए उसके तपस्या द्वारा केवल कर्म-निर्भरण होता है, कर्म-निरोध नहीं होता। इसे हस्ति-स्नान के समान बताया गया है । हाथी नहाता है और तालाब से बाहर श्रा धूल या मिट्टी उछाल फिर उससे गन्दला बन जाता है। वैसे ही अविरत-व्यक्ति इधर तपस्या द्वारा कर्म-निर्जरण कर शोधन करते हैं और उधर अविरति तथा सावध आचरण से फिर कर्म का उपचय कर लेते हैं । इस प्रकार यह साधना की समग्र भूमिका नहीं है। वह (समग्र भूमिका ) विद्या और आचरण दोनों की सह-स्थिति में बनती है १२॥
चरण-करण या संवर धर्म के बिना सम्यग् दृष्टि सिद्ध नहीं होता। इसीलिए साधना की समग्रता को रथ-चक्र और अन्ध-पंगु के निदर्शन के द्वारा समझाया है। जैसे एक पहिए से रथ नहीं चलता, वैसे ही केवल विद्या (श्रुत या सम्यग दर्शन) से साध्य नहीं मिलता। विद्या पंगु है, क्रिया अन्धी । साध्य तक पहुँचने के लिए पैर और आंख दोनों चाहिए।
ऐसा विश्वास पाया जाता है कि "तत्वों को सही रूप में जानने वाला सब दुःखों से छूट जाता है। ऐसा सोच कई व्यक्ति धर्म का आचरण नहीं