Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
शंदों को भी जैन बनाया। आगे चलकर उनका कर्म व्यवसाय हो गया । उनकी समताने श्राज कर्मणा वैश्य जाति में हैं । इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि भारत में शक, हूण आदि कितने ही विदेशी श्राये और भारतीय जातियों में समा गए ।
इसको भी तात्त्विकता से
'व्यवहार-दृष्टि में ब्राह्मण कुल में जन्म लेनेवाला ब्राह्मण, वैश्य कुल में जन्म लेनेवाला वैश्य ऐसी व्यवस्था चलती है। नेही जोड़ा जा सकता ; कारण कि ब्राह्मण कुल में पैदा होने वाले व्यक्ति में वैश्योचित और वैश्यकुल में पैदा होने वाले व्यक्ति में ब्राह्मणोचित कर्म देखे 'जाते हैं। जाति को स्वाभाविक या ईश्वरकृत मानकर तात्त्विक कहा जाए, वह भी यौक्तिक नहीं । यदि यह वर्ण-व्यवस्था स्वाभाविक या ईश्वरकृत होती . तो सिर्फ भारत में ही क्यों ? क्या स्वभाव और ईश्वर भारत के ही लिए थे, या उनकी सत्ता भारत पर ही चलती थी ? हमें यह निर्विवाद मानना होगा कि यह भारत के समाजशास्त्रियों की सूझ है, उनकी की हुई व्यवस्था है । समाज की चार प्रमुख जरूरतें हैं- विद्यायुक्त सदाचार, रक्षा, व्यापार ( आदान-प्रदान) और शिल्प । इनको सुव्यवस्थित और सुयोजित करने के लिए उन्होंने चार वर्ग बनाए और उनके कार्यानुरूप गुणात्मक नाम रख दिए । विधायुक्त सदाचार प्रधान ब्राह्मण, रक्षाप्रधान क्षत्रिय, व्यवसायप्रधान वैश्य और शिल्प प्रधान शूद्र ? ऐसी व्यवस्था अन्य देशों में नियमित नहीं है, फिर भी कर्म के अनुसार जनता का वर्गीकरण किया जाए तो ये चार वर्ग सब जगह बन सकते हैं। यह व्यवस्था कैसी है, इस पर अधिक चर्चा न की जाए, तब भी इतना सा तो कहना ही होगा कि जहाँ यह जातिगत अधिकार के रूप में कर्म को विकसित करने की योजना है, वहाँ व्यक्तिस्वातन्त्र्य के विनाश की भी। एक बालक बहुत ही अध्यवसायी और बुद्धिमान् है, फिर भी वह पढ़ नहीं सकता क्योंकि वह शुद्र जाति में जन्मा है। 'शूद्रों को पढ़ने का अधिकार नहीं है' यह इस समाज व्यवस्था एवं तद्गत धारणा का महान् दोष है, इसे कोई भी विचारक अस्वीकार नहीं कर सकता। इस वर्ण-व्यवस्था के निर्माण में समाज की उन्नति एवं विकास का ही ध्यान रहा होगा किन्तु जागे चलकर इसमें जो बुराइयां आई, वे और भी इसका अंगभंग कर
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