Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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रहस्य की खोज
हम क्या हैं ! हमें क्या करना है ? हम कहाँ से आते हैं और कहाँ चले जाते है-जैन दर्शन इन प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करता है। इसके समाधान के साथ-साथ हमें यह निर्णय भी कर लेना होगा कि जगत् का स्वरूप क्या है और उसमें हमारा क्या स्थान है ?
हमें अपनी जानकारी के लिए आत्मा, धर्म और कर्म की समस्याओं पर विचार करना होगा। आत्मा की स्वाभाविक या विशुद्ध दशा धर्म है जिसे 'संवर' और 'निर्जरा'-अपूर्ण मुक्ति और पूर्ण मुक्ति कहते हैं। 'संवर'
आत्मा की वह दशा है, जिसमें विजातीय तत्त्व-कर्म-पुद्गल का उसके साथ संश्लेष होना छूट जाता है। पहले लगे हुए विजातीय तत्त्व का आत्मा से विश्लेष या विसंबंध होता है, वह दशा है 'निर्जरा'। विजातीय-तत्त्व थोड़ा अलग होता है, वह आंशिक या अपूर्ण निर्जरा होती है। विजातीय-तत्त्व सर्वथा अलग हो जाता है, उसका नाम है मोक्ष।
श्रात्मा का अपना रूप मोक्ष है। विजातीय द्रव्य के प्रभाव से उसकी जो दशा बनती है, वह 'वैभाविक' दशा कहलाती है। इसके पोषक चार तत्त्व हैश्रास्रव, बन्ध, पुण्य और पाप। आत्मा के साथ विजातीय तत्त्व एक रूप बनता है। इसे बन्ध कहा जाता है । इसके दो रूप हैं-शुभ और अशुभ । शुभ पुद्गल-स्कन्ध ( पुण्य ) जव आत्मा पर प्रभाव डालते हैं, तब वह मनोज्ञ पुद्गलों की ओर आकृष्ट होती है और उसे पौद्गलिक सुख की अनुभूति
होती है । अशुभ पुद्गल-स्कन्धों (पाप ) का प्रभाव इससे विपरीत होता है। उससे अप्रिय, अमनोश भाव बनते हैं। श्रात्मा में विजातीय तत्त्व के स्वीकरण का जो हेतु है, उसकी संज्ञा 'पासव' है। विभाव से स्वभाव में आने के लिए ये तत्त्व उपयोगी है। इनकी उपयोगिता के बारे में विचार करना उपयोगितावाद है।
धर्म गति है, गति का हेतु या उपकारक 'धर्म' नामक द्रव्य है। स्थिति है, स्थिति.का हेतु या उपकारक 'अधर्म' नामक द्रव्य है। आधार है, आधार का हेतु या उपकारक 'आकाश' नामक द्रव्य है । परिवर्वन है, परिवर्तन का हेतु या