Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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अशुभ कर्म-पुद्गलों का आकर्षक भी है। इसलिए इसे मुख्य-वृत्त्या कई आचार्य जीव पर्याय मानते हैं, कई अजीव पर्याय । यह विविक्षा मेद है।
नव तत्त्वों में पहला तत्त्व जीव है और नवां मोक्ष । जीव के दो प्रकार बत 1 लाये गए हैं - (१) संसारी बद्ध और (२) मुक्त 31 । यहाँ बद्ध- जीव (पहला) और मुक्त जीव नौवाँ तत्त्व है। जीव जीव प्रतिपक्ष है। वह बद्ध-मुक्त 'नहीं होता । पर जीव का बन्धन पौदगलिक होता है। इसलिए साधना के क्रम में
जीव की जानकारी भी श्रावश्यक है । बन्धन-मुक्ति की जिज्ञासा उत्पन्न होने पर जीव साधक बनता है और साध्य होता है मोक्ष। शेष सारे तत्त्व साधक या बाधक बनते हैं। पुण्य, पाप और बंध मोक्ष के बाधक हैं । श्रासव को अपेक्षा भेद से बाधक और साधक दोनों माना जाता है। शुभ-योग को कहें तो उसे मोक्ष का साधक भी कह सकते हैं। किन्तु चालव . का कर्म-संग्राहक रूप मोक्ष का बाधक ही है। संवर और निर्जरा- ये दो मोक्ष
कभी
साधक है !
(२) अविरति
बाधक तत्त्व -- ( श्राखव ) (३) प्रमाद (४) कषाय ( ५ ) योग |
जीव में विकार पैदा करने वाले परमाणु मोह कहलाते हैं। दृष्टि-विकार उत्पन्न करने वाले परमाणु दर्शन- मोह हैं ।
पाँच हैं- (१) मिथ्यात्व
उनके तीन पुञ्ज हैं :
(१) मादक (२) अर्ध- मादक (३) श्रमादक !
मादक पुल के उदय काल में विपरीत दृष्टि, अर्ध-मादक पुत्र के उदयकाल में सन्दिग्ध-दृष्टि, मादक पुल के उदयकाल में प्रतिपाति क्षायोपशमिक सम्यक् दृष्टि, तीनों पुखों के पूर्ण उपशमन - काल में प्रतिपाति श्रपशमिक सम्यकू दृष्टि, तीनों पुत्रों के पूर्ण वियोग काल में अप्रतिपाति क्षायिक सम्यक् दृष्टि होती है 1
चारित्र विकार उत्पन्न करने वाले परमाणु चारित्र मोह कहलाते हैं। उनके दो विभाग है।
(१) कषाय (२) नो कषाय कषाय को उत्तेजित करने वाले परमाणु । कषाय के चार वर्ग है :