Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
View full book text
________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
[ २८९
जाती है। जब तक कर्म का घनत्व होता है, तब तक लोक का घनत्व उस पर दबाव डालता है । ज्योंही कर्म का घनत्व मिटता है, आत्मा हलकी होती है, फिर लोक का घनत्व उसकी ऊर्ध्व-गति में बाधक नहीं बनता । गुब्बारे में हाइड्रोजन ( Hydrogen ) भरने पर बायु मण्डल के घनत्व से उसका घनत्व कम हो जाता है, इसलिए वह ऊँचा चला जाता है। यही बात यहाँ समए । गति का नियमन धर्मास्तिकाय -साक्षेप है साथ ही गति समास हो जाती है। वे मुक्तजीव लोक के जाते हैं ।
। उसकी समाप्ति के अन्तिम छोर तक चले
:
1
1
मुक्तजीव शरीर होते हैं। गति शरीर-सापेक्ष है, इसलिए वे गतिशील नहीं होने चाहिए। बात सही है। उनमें कम्पन नहीं होता । कम्पित-दशा में जीव की मुक्ति होती है | और वे सदा उसी स्थिति में रहते हैं । सही अर्थ में वह उनकी स्वयं प्रयुक्त गति नहीं, बन्धन-मुक्ति का वेग है । जिसका एक ही धक्का एक क्षण में उन्हें लोकान्त तक ले जाता है ७४ । मुक्ति-दशा में आत्मा का किसी दूसरी शक्ति में विलय नहीं होता। वह किसी दूसरी सत्ता का अवयव या विभिन्न अवयवों का संघात नहीं, वह स्वयं स्वतन्त्र सत्ता है । उसके प्रत्येक अवयव परस्पर अनुविद्ध हैं । इसलिए वह स्वयं अखण्ड है । उसका सहज रूप प्रगट होता है-यही मुक्ति है। मुक्त जीवों की विकास की स्थिति में भेद नहीं होता। किन्तु उनकी सत्ता स्वतन्त्र होती है। सत्ता का स्वातन्त्र्य मोक्ष की स्थिति का बाधक नहीं है । अविकास या स्वरूपावरण उपाधि जन्य होता है, इसलिए कर्म-उपाधि मिटते ही वह मिट जाता है- -सब मुक्त आत्माओं का विकास और स्वरूप सम कोटिक हो जाता है। आत्मा की जो पृथक-पृथक स्वतन्त्र सत्ता है वह उपाधिकृत नहीं है, वह सहज है, इसलिए किसी भी स्थिति में उनकी स्वतन्त्रता पर कोई आंच नहीं श्राती । श्रात्मा अपने आप में पूर्ण अवयवी है, इसलिए उसे दूसरों पर श्राश्रित रहने की कोई आवश्यकता नहीं होती ।
मुक्त दशा में श्रात्मा समस्त वैभाविक-आधेयों, औपाधिक विशेषताओं से बिरहित हो जाती है। मुक्त होने पर पुनरावर्तन नहीं होता। उस (पुनरावर्तन) का हेतु कर्म चक्र है। उसके रहते हुए भक्ति नहीं होती । कर्म का निर्मूल