Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व (१५) लोकान्तगमन (१६) शाश्वत-स्थिति
धर्म का यथार्य श्रमण पाए बिना कल्याणकारी और पापकारी कर्म का शान नहीं होता। इसलिए सबसे पहले 'श्रुति' है। उससे आत्म और अनात्म तत्त्व की प्रतीति होती है। इनकी प्रतीति होने पर अहिंसा या संयम का विवेक आता है। आत्म-अनात्म की प्रतीति का दूसरा फल है-गतिविज्ञान | इसका फल होता है-गति के कारक और उसके निवर्तक तत्त्वों का शान-मोक्ष के साधक-बाधक तत्त्वों का ज्ञान (मोक्ष के साधक तत्त्व गति के निवर्तक है, उसके बाधक तत्त्व गति के प्रवर्तक ) पाप का विपाक कटु होता है। पुण्य का फल क्षणिक तृति देने वाला और परिमाणतः दुःख का कारण होता है। मोक्ष-सुख शाश्वत और सहज है। यह सब जान लेने पर भोग-विरक्ति होती है । यह (आन्तरिक कषायादि और बाहरी पारिवारिक जन के ) संयोगत्याग की निमित्त बनती है। संयोगों की आसक्ति छूटने पर अनगारित्व पाता है। संवर-धर्म का अनुशीलन गृहस्थी भी करते हैं। पर अनगार के उत्कृष्ट संवर-धर्म का स्पर्श होता है। यहाँ से आध्यात्मिक उत्कर्ष का द्वार खुल जाता है । सिद्धि सुलभ हो जाती है। उत्क्रान्ति का यह विस्तृत कम है। इसमें साधना और सिद्धि-दोनों का प्रतिपादन है । इनका संक्षेपीकरण करने पर साधना की भूमिकाएं पांच बनती हैं।
साधना की पांच भूमिकाएं:(१) सम्यग-दर्शन (२) विरति (३) अप्रमाद (४) अकषाय
(५) अयोग आरोह क्रम
इनका प्रारोह-क्रम यही है । सम्यग् दर्शन के बिना विरति नहीं, विरति के बिना अप्रमाद नहीं, अप्रमाद के बिना अकषाय नहीं, अकषाय के बिना प्रयोग नहीं।