Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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२ ] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व दर्शनों द्वारा स्वीकृत हुआ है। परन्तु जैन दर्शन में इनका जितना विस्तार है, उतना अन्यत्र प्राप्य नहीं है।
क्रिया का परित्याग ( या प्रक्रिया का विकास) क्रमिक होता है। पहले क्रिया निवृत्त होती है फिर अप्रत्याख्यान, पारिग्रहिकी, प्रारम्भिकी और माया-प्रत्यया-ये निवृत होती हैं । | ईपिथिकी निवृत होती है, तब प्रक्रिया पूर्ण विकसित होती जाती है। जो कोई सिद्ध या मुक्त होता है, वह अक्रिय ही होता है । इसलिए सिद्धिक्रम में 'प्रक्रिया का फल सिद्धि' ऐसा कहा गया है। संसार का क्रम इसके विपरीत है । पहले क्रिया, किया से कर्म और कर्म से वेदना ।
कर्म-रज से विमुक्त श्रात्मा ही मुक्त होता है. ८ । सूक्ष्म कर्माश के रहते हुए मोक्ष नहीं होता । इसीलिए अध्यात्मवाद के क्षेत्र में क्रमशः व्रत (असत् कर्म की निवृति ), सत्कर्म फलाशात्याग, सत्कर्म त्याग, सत्कर्म निदान शोधन और सर्व कर्म परित्याग का विकास हुआ। यह 'सर्वकर्म परित्याग' ही अक्रिया है। यही मोक्ष या विजातीय द्रव्य-प्रेरणा-मुक्त आत्मा का पूर्ण विकास है। इस दशा का निरूपक सिद्धान्त ही 'अक्रियावाद' है। निर्वाण-मोक्ष गौतम मुक्त जीव कहाँ रुकते हैं ? वे कहाँ प्रतिष्ठित हैं ? वे शरीर कहाँ छोड़ते हैं ! और सिद्ध कहाँ होते हैं ! भगवान् .. मुक्त जीव अलोक से प्रतिहत हैं, लोकांत में प्रतिष्ठित है, मनुष्य-लोक में शरीरमुक्त होते हैं और सिद्धि-क्षेत्र में वे सिख हुए है ।
निर्वाण कोई क्षेत्र का नाम नहीं, मुक्त आत्माएं ही निर्वाण हैं। वे लोकाम में रहती है, इसलिए उपचार-दृष्टि से उसे भी निर्वाण कहा जाता है। .
कम-परमाणुओं से प्रभावित आत्मा संसार में भ्रमण करती हैं। भ्रमणकाल में ऊर्ध्वगति से अधोगति और अधोगति से ऊर्ध्वगति होती है। उसका नियमन कोई दूसरा व्यक्ति नहीं करता। यह सब स्व-नियमन से होता है। अधोगति का हेतु कर्म की गुरुता और अवंगति का हेतु कर्म की
कर्म का पनल मिडते ही प्रात्मा सहज गति से ऊर्जखोकान्त तक चली