Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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२६२. ]
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
के ये पांच रूप ( पांच द्रव्य ) और जीव, ये छह सत्य हैं। ये विभाग-सापेक्ष स्वरूप सत्य हैं।
श्राव (बन्ध - हेतु ), संवर ( बन्धन - निरोध ) निर्जरा (बन्धन-क्षय हेतु ) - ये तीनों साधन- सत्य हैं। मोक्ष साध्य-सत्य है । बन्धन-दशा में श्रात्मा के ये चारों रूप सत्य हैं । मुक्त-दशा में प्रसव भी नहीं होता, संबर भी नहीं होता, निर्जरा भी नहीं होती, साध्यरूप मोक्ष भी नहीं होता, इसलिए वहाँ आत्मा का केवल श्रात्मरूप ही सत्य है ।
रहते हुए उसके
बन्धन भी नहीं
आत्मा के साथ अनात्मा ( अजीब- पुद्गल ) का सम्बन्ध बन्ध, पुण्य और पाप से तीनों रूप सत्य हैं। मुक्त-दशा में होता, पुण्य भी नहीं होता, पाप भी नहीं होता। इसलिए जीव वियुक्त दशा में केवल जीव (पुद्गल ) ही सत्य है । तात्पर्य कि जीव-जीव की संयोग- दशा में नव सत्य हैं। उनकी वियोग-दशा में केवल दो ही सत्य हैं ।
व्यवहार नय से वस्तु का वर्तमान रूप ( वैकारिक रूप ) भी सत्य है । निश्चय - नय से वस्तु का त्रैकालिक ( स्वाभाविक रूप ) सत्य है ।