Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व [२७३ जीव के सहयोग के कारण पुद्गल की शानात्मक प्रवृत्तियां होती है। सब जीव चेतना युक्त होते हैं। किन्तु चेतना की प्रवृत्ति उन्हीं की दीख पड़ती है जो शरीर सहित होते हैं। सब पुद्गल रूप सहित हैं फिर भी चर्मचद् द्वारा के ही दृश्य है, जो जीव युक्त और मुक्त-शरीर है। पुद्गल दो प्रकार के होते हैंजीव-सहित और जीव-रहित । शस्त्र-अहत सजीव और शस्त्र-हत निजीव होते हैं। जीव और स्थूल शरीर के वियोग के निमित्त शस्त्र कहलाते हैं। शस्त्र के द्वारा जीव शरीर से अलग होते हैं। जीव के चले जाने पर जो शरीर या शरीर के पुद्गल-स्कन्ध होते है-वे जीवमुक्त शरीर कहलाते हैं। खनिज पदार्थ-सब धातुएं पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर हैं । पानी अपकायिक जीवों का शरीर है। अग्नि तैजस कायिक, हवा वायुकायिक, तृण-लता-वृक्ष
आदि वनस्पति कायिक, और शेष सब त्रस कायिक जीवों के शरीर हैं। ___ जीव और शरीर का सम्बन्ध अनादि-प्रवाह वाला है। वह जब तक नहीं टूटता तब तक पुद्गल जीव पर और जीव पुद्गल पर अपना-अपना प्रभाव डालते रहते हैं । वस्तुवृत्या जीव पर प्रभाव डालने वाला कार्मण शरीर है। यह जीव के विकारी परिवर्तन का अान्तरिक कारण है। इसे बाह्य-स्थितियां प्रभावित करती है। कार्मण-शरीर कार्मण-वर्गणा से बनता है। ये वर्गणाएं सबसे अधिक सूक्ष्म होती हैं। वर्गणा का अर्थ है एक जाति के पुद्गल स्कन्धों का समूह । ऐसी वर्गणाएँ असंख्य हैं। प्रत्यक्ष उपयोग की दृष्टि से वे पाठ मानी जाती हैं :१-औदारिक वर्गणा
५-कार्मण वर्गणा २-वैक्रिय वर्गणा
६-श्वासोच्छ्वास वर्गणा ३-आहारक ,
७-माषा ४-तेजस् ,
-मन पहली पांच वर्गणाओं से पांच प्रकार के शरीरों का निर्माण होता है। शेष तीन वर्गणाओं से श्वास-उच्छवास, वाणी और मन की क्रियाएं होती हैं। ये वर्गणाएं समूचे लोक में व्याम है। जब तक इनका व्यवस्थित संगठन नहीं बनता, तब तक ये स्वानुकूल प्रवृत्ति के योग्य रहती हैं किन्तु उसे कर नहीं सकतीं। इनका व्यवस्थित संगठन करने वाले प्राणी है। प्राणी अनादिकाल