Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
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के भेद से कोई गुजराती बोलता है, कोई बंगाली । धर्म के मेद से कोई जैन. है, 1 कोई बौद्ध, कोई वैदिक है, कोई इस्लाम, कोई क्रिश्चियन । रुचि-मेद से कोई धार्मिक है, कोई राजनैतिक तो कोई सामाजिक । कर्म-भेद से कोई ब्राह्मण है, कोई क्षत्रिय, कोई वैश्य तो कोई शूद्र । जिनमें जो-जो समान गुण हैं, वे उसी वर्ग में समा जाते हैं। एक ही व्यक्ति अनेक स्थितियों में रहने के कारण अनेक वर्गों में चला जाता है। एक वर्ग के सभी व्यक्तियों की भाषा, वर्ण, धर्म कर्म एक से नहीं होते हैं। इन औपाधिक मेदों के कारण मनुष्य जाति में इक्ना संघर्ष बढ़ गया है कि मनुष्यों को अपनी मौलिक समानता समझने तक का अवसर नहीं मिलता । प्रादेशिक भेद के कारण बड़े-बड़े संग्राम हुए और भाज भी उनका अन्त नहीं हुआ है । वर्ण-मेद के कारण अफ्रीका में जो कुछ हो रहा है, वह मानवीय तुच्छता का अन्तिम परिचय है। धर्म-भेद के कारण सन् ४८ में होने वाला हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष मनुष्य के शिर कलंक का टीका है । कर्म-भेद के कारण भारतीय जनता के जो हुआछूत का कीटाणु लगा हुआ है। वह मनुष्य जाति को पनपने नहीं देता। ये सब समस्याएं हैं। इनको पार किये बिना मनुष्य जाति का कल्याण नहीं। मनुष्य जाति एकता से हटकर इतनी अनेकता में चली गई है कि उसे आज फिर मुड़कर देखने की आवश्यकता है - मनुष्य जाति एक है-धर्म जाति-पांति से दूर है-इसको हृदय में उतारने की आवश्यकता है।
अब प्रश्न यह रहा कि जाति तात्त्विक है या नहीं ? इसकी मीमांसा करने से पहले इतना सा और समझ लेना होगा कि इस प्रसंग का दृष्टिकोण भारतीय अधिक है, विदेशी कम। भारतवर्ष में जाति की चर्चा प्रमुखतया कर्मामित रही है। भारतीय पंडितों ने उसके प्रमुख विभाग चार बतलाए हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । जन्मना जाति मानने वाली ब्राह्मण-परम्परा इनको तात्त्विक - शाश्वत मानती है और कर्मणा जाति मानने वाली श्रमण-परम्परा के मतानुसार ये शाश्वत हैं। हम यदि निश्चयदृष्टि में जाएं तो तात्विक मनुष्य जाति है ५० | 'मनुष्य श्राजीवन मनुष्य रहता है' पशु नहीं बनता । कर्मकृत जाति में तात्विकता का कोई लक्षण नहीं । कर्म के अनुसार जाति
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है "। कर्म बदलता है, जाति बदल जाती है। रणप्रभवति ने बहुत बारे