Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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__जैन वन मौलिक तस्व , ११० (२) मोग-पुरुस (काली) (१)कर्म-पुरुष (वासुदेव) 1. मध्यम पुस तीन प्रकार के होते हैं-१) उप (२) भोग (३) राजन्य।
गधन्य पुरुष भी तीन प्रकार के होते हैं-(१) दास (२) तक (कर्मकर)(३) मागीदार।
इस प्रकार अनेक दृष्टिकोण है। ये सब सापेक्ष है। बहुल-माग में इस सारे प्रकरणों को सामयिक व्यवस्था का चित्रण कहना ही अधिक संगत होगा।
चतुर्वर्ग
(१) एक व्यक्ति जाति-सम्पन्न (शुद्ध मातृक) होता है, कुल सम्पन्न (शुद्ध पितृक ) नहीं होता, (२) एक व्यक्ति कुल सम्पन्न होता है, जातिसम्पन्न नहीं होता, (३) एक व्यक्ति जाति और कुल दोनों से सम्पन्न होता है और (४) एक व्यक्ति जाति और कुल दोनों से ही सम्पन्न नहीं होता ४॥
जाति और कुल-भेद का आधार मातृ प्रधान और पितृ-प्रधान कुटुम्बव्यवस्था भी हो सकती है। जिस कुदम्ब के संचालन का भार स्त्रियों ने बहन किया, उनके वर्ग 'जाति' कहलाए और पुरुषों के नेतृत्व में चलने वाले कुटुम्बों के 'वर्ग' कुल कहलाए। ___ सन्तान पर पितामाता के अर्जित गुणों का असर होता है । इस दृष्टि से जाति और कुल का विचार बड़ा महत्त्वपूर्ण है।
कुल के पीछे उंच-नीच, मध्यम उदन", (उन्नत), अन्त५, प्रान्त, तुच्छ, दखि, भिक्षुक, कृपण, माप, दीस (प्रसिद्ध), बहुजन-अपरिभूत आदि विशेषण लगते हैं, वे निरर्थक नहीं है। ये व्यक्ति की पौदगलिक स्थिति के अंकन में सहयोगी बनते हैं। दक्षिण की कुछ जातियों में प्राण मी मातृ-प्रधान
ढाई हजार वर्ष पूर्व से ही जातिवाद की चर्चा बड़े उस रूपसे चल रही है। इसने सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक प्रायः सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया।
इसके मूल में दो प्रकार की विचारधाराएं।-एक बामण-परम्परा की, सरी ..मा-परम्परा की। पहली परम्परा में जाति को तालिक मानकर मामला