Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
View full book text
________________
981
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी, तथा इस परिवर्तन में भी उसका अस्तित्व नहीं मिटता। उत्पाद और विनाश के बीच यदि कोई स्थिर आधार न हो तो हमें सजातीयता-'यह वही है', का अनुभव नहीं हो सकता। यदि द्रव्य निर्विकार ही हो तो विश्व की विविधता संगत नहीं हो सकती। इसलिए परिणामि नित्यत्व' जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसकी तुलना रासायनिक विज्ञान के 'द्रव्याक्षरत्ववाद' से की जा सकती है।
द्रव्याक्षरत्ववाद का स्थापन सन् १७८८ में Lawoisier नामक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने किया था। संक्षेप में इस सिद्धान्त का आशय यह है कि इस अनन्त विश्व में द्रव्य का परिणाम सदा समान रहता है, उसमें कोई न्यूनाधिकता नहीं होती। न किसी बर्तमान द्रव्य का सर्वथा नाश होता है और न किसी सर्वथा नये द्रव्य की उत्पत्ति होती है। साधारण दृष्टि से जिसे द्रव्य का नाश होना समझा जाता है, वह उसका रूपान्तर में परिणाम मात्र है। उदाहरण के लिए कोयला जलकर राख हो जाता है, उसे साधारणतः नाश हो गया कहा जाता है। परन्तु वस्तुतः वह नष्ट नहीं होता। वायुमण्डल के आक्सीजन अंश के साथ मिलकर कार्बोनिक एसिड गैस के रूप में परिवर्तित होता है। यूं ही शकर या नमक पानी में घुलकर नष्ट नहीं होते, किन्तु ठोस से वे सिर्फ द्रव रूप में परिणत होते हैं। इसी प्रकार जहाँ कहीं कोई नवीन वस्तु उत्पन्न होती प्रतीत होती है वह भी वस्तुतः किसी पूर्ववर्ती वस्तु का रूपान्तर मात्र है । घर में अव्यवस्थित रूप से पड़ी रहने वाली कड़ाई में जंग लग जाता है, यह क्या है ? यहाँ भी जंग नामक कोई नया द्रव्य उत्पन्न नहीं हुआ अपितु धातु की ऊपरी सतह, जल और वायुमण्डल के आक्सीजन के संयोग से लोहे के आक्सी-हाइड्रेट के रूप में परिणत हो गई। भौतिकवाद पदार्थों के गुणात्मक अन्तर को परिमाणात्मक अन्तर में बदल देता है। शक्ति परिमाण में परिवर्तनशील नहीं, गुण की अपेक्षा परिवर्तनशील है। प्रकाश, तापमान, चुम्बकीय आकर्षण आदि का हास नहीं होता, सिर्फ ये एक दूसरे में परिवर्तित होते हैं। जैन दर्शन में मातृपदिका का सिद्धान्त भी यही है ।
उत्पाद वविनाशैः, परिणामः क्षणे-धणे । द्रव्याषामविरोषश्च, प्रत्यक्षादिह घयते ॥