Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
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गंति एवं स्थिति में सहायक बन सकें। हवा स्वयं गतिशील है, तो पृथ्वी, पानी आदि सम्पूर्ण लोक में व्यास नहीं है। गति और स्थिति सम्पूर्ण लोक में होती है, इसलिए हमें ऐसी शक्तियों की अपेक्षा है, जो स्वयं गतिशून्य और सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो, अलोक में न हो" । इस यौक्तिक आधार पर हमें धर्म, अधर्म की श्रावश्यकता का सहज बोध होता है ।
लोक-लोक की व्यवस्था पर दृष्टि डाले, तब भी इसके अस्तित्व की जानकारी मिलती है। आचार्य मलयगिरी ने इनका अस्तित्व सिद्ध करते हुए लिखा है - "इनके बिना लोक-लोक की व्यवस्था नहीं होती ३५
लोक है इसमें कोई सन्देह नहीं, क्योंकि यह इन्द्रिय-गोचर हैं। अलोक इन्द्रियातीत है, इसलिए उसके अस्तित्व या नास्तित्व का प्रश्न उठता है। किन्तु लोक का अस्तित्व मानने पर लोक की अस्तिता अपने श्राप मान ली जाती है। तर्क-शास्त्र का नियम है कि " जिसका वाचक पद व्युत्पत्तिमाम् और शुद्ध होता है, वह पदार्थ सत् प्रतिपक्ष होता है, जैसे श्रघट-घट का प्रतिपक्ष है, इसी प्रकार जो लोक का विपक्ष है, वह अलोक है ३"
जिसमें जीव श्रादि सभी द्रव्य होते हैं, वह लोक है ३७ और जहाँ केवल आकाश ही आकाश होता है, वह अलोक है ३८ अलोक में जीव, पुद्गल नहीं होते, इसका कारण है - वहाँ धर्म और अधर्म द्रव्य का अभाव। इसलिए ये ( धर्म-अधर्म ) लोक, अलोक के विभाजक बनते हैं। "आकाश लोक और अलोक दोनों में तुल्य है, 3 इसीलिए धर्म और अधर्म को लोक तथा लोक का परिच्छेदक मानना युक्तियुक्त है । यदि ऐसा न हो तो उनके विभाग का आधार ही क्या रहे ।”
गौतम - "भगवन् ! गति सहायक तत्त्व ( धर्मास्तिकाय ) से जीवों को क्या लाभ होता है ?
"
भगवान् - " गौतम ! गति का सहारा नहीं होता तो कौन श्राता और कौन जाता ! शब्द की तरंगे कैसे फैलती ? ब्रांख कैसे खुलती १ कौन मनन करता ? कौन बोलता? कौन हिलता-डुलता ! यह विश्व अचल ही होता । को चल है उन सब का श्रालम्बन गति सहायक तत्व ही है ।"