Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्वं . दर्शन-बुद्ध के लिए साधना, साधक और सिद्ध से बढ़कर कोई सत्य नहीं . होता । इसलिए वह उन्हीं को 'मंगल' लोकोत्तम मानता है और उन्हीं की । शरण स्वीकार करता है। यह व्यक्ति की आस्था या व्यक्तिवाद नहीं, किन्तु गुणवाद है। आचार और अतिचार
सम्यग् दर्शन में पोष लाने वाली प्रवृत्ति उसका प्राचार और दोष लाने वाली प्रवृत्ति उसका अतिचार होती है। ये व्यावहारिक निमित्त है, सम्यम् दर्शन का स्वरूप नहीं है।
सम्यग दर्शन के प्राचार पाठ है।५(१) निशंकित..... सत्य में निश्चित विश्वास । (२) निकांक्षित...... मिथ्या विचार के स्वीकार की अरुचि । (३) निर्विचिकित्सा......सत्याचरण के फल में विश्वास । (४) अमूढ-दृष्टि......असत्य और असत्याचरण की महिमा के प्रति
अनाकर्षण, अव्यामोह। (५) उपवृहण.........आत्म गुण की वृद्धि । (६) स्थिरीकरण.........सत्य से डगमगा जाए, उन्हें फिर से सत्य में
स्थापित करना। (७) वात्सल्य............सत्य धर्मों के प्रति सम्मान-मावना, सत्याचरण
. का सहयोग। (८)प्रभावना.........प्रभावकढंग से सत्य के महात्म्य का प्रकाशन । पांच अतिचार
(१) शंका.. सत्य में संदेह। (२)काक्षा.. मिथ्याचार के स्वीकार की अभिलाषा । (३) विचिकित्सा.. सत्याचरण की फल-प्राप्ति में संदेह ।
(४) परपाखण्ड-प्रशंसा...इसर सम्प्रदाय की प्रशंसा। .. (५) परपाषण्ड संस्तव...इतर सम्प्रदाय का परिचय ।