Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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शील और श्रुत
एक समय भगवान् राजगृह में समबखत थे। गौतम स्वामी पाए। भगवान् को बंदना कर बोले-भगवन् ! कई अन्य यूषिक कहते हैं-बील ही श्रेय है, कई कहते हैं श्रुत ही श्रेय है, कई कहते हैं शील श्रेय है और भुत भी श्रेय है, कई कहते हैं श्रुत श्रेय है और शील भी.श्रेय है; इनमें कौनसा अभिमत ठीक है भगवन् ?
भगवान् बोले-गौतम ! अन्य-यूयिक जो कहते हैं, वह मिथ्या (एकान्त अपूर्ण) है। मैं यूं कहता हूँ-अरूपणा करता हूँ
चार प्रकार के पुरुष-जात होते हैं१-शीलसम्पन्न, श्रुतसम्पन्न नहीं। २-श्रुतसम्पन्न, शीलसम्पन्न नहीं। ३-शीलसम्पन्न और श्रुतसम्पन्न । ४- शीलसम्पन्न और न श्रुतसम्पन्न ।
पहला पुरुष-जात शीलसम्पन्न है-उपरत (पाप से निवृत्त) है, किन्तु अश्रुतवान् है-अविज्ञातधर्मा है, इसलिए वह मोक्ष मार्ग का देशआराधक है ।
दूसरा श्रुत-सम्पन्न है-विशातधर्मा है, किन्तु शील सम्पन्न नहीं-उपरत नहीं, इसलिए वह देशविराधक है ।
तीसरा शीलवान् भी है (उपरत भी है ), श्रुतवान् भी है (विशातधर्मा भी है, इसलिए वह सर्व-आराधक है।
चौथा शीलवान् भी नहीं है (उपरत भी नहीं है), श्रुतवान् मी नहीं है। (विशावधर्मा भी नहीं है ), इसलिए वर सर्व विराधक है।
इसमें भगवान् ने बताया कि कोरा ज्ञान भेयस् की एकांगी आराधना है। कोरा शील भी वैसा ही है। शान और शील दोनी नहीं, वह श्रेयस् की विराधना है; आराधना है ही नहीं। शन और शील दोनों की संगति की श्रेयस् की सर्वांगीण भाराधना है।