Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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.. जैन नि के मौलिक तत्व शान-शकि आत्मा की अनावरण-दशा का परिणाम है। इसलिए वह सिर्फ. पदार्थाभिमुखी या शेयाभिमुखी वृत्ति है। दर्शन-शक्ति अनावरण और अमोह दोनों का संयुक्त परिणाम है। इसलिए वह साध्याभिमुखी या पाल्माभिमुखी वृत्ति है। दर्शन के प्रकार
एकविध दर्शन
सामान्यवृत्त्या दर्शन एक है "| आत्मा का जो तत्त्व श्रद्धात्मक परिणाम है, वह दर्शन (दृष्टि, रुचि, अभिप्रीति, श्रद्धा) है। उपाधि-भेद से वह अनेक प्रकार का होता है। फिर भी सब में श्रद्धा की व्याप्ति समान होती है। इसलिए निरुपाधिक वृत्ति या श्रद्धा की अपेक्षा वह एक है। एक समय में एक व्यक्ति को एक ही कोटी की श्रद्धा होती है । इस दृष्टि से भी वह एक है। . विविध दर्शन:-.
श्रद्धा का सामान्य रूप एक है-यह अमेद-बुद्धि है, श्रद्धा का सामान्य निरूपण है। व्यवहार जगत् में वह एक नहीं है। वह सही भी होती है और गलत भी। इसलिए वह द्विरूप है-(१) सम्यग-दर्शन (२) मिथ्यावर्शन १२॥ ये दोनों भेद तत्त्वोपाधिक हैं। श्रद्धा अपने आपमें सत्य या असत्य नहीं होती। तत्त्व भी अपने आपमें सत्य-असत्य का विकल्प नहीं रखता। तत्त्व और श्रद्धा का सम्बन्ध होता है तब 'तत्त्व-श्रद्धा' ऐसा प्रयोग बनता है। तब यह विकल्प खड़ा होता है-श्रद्धा सत्य है या असत्य ! यही श्रद्धा की विरूपता का आधार है। तत्त्व को यथार्थता का दर्शन या दृष्टि है अथवा तत्त्व की यथार्थता में जो रुचि या विश्वास है, वह भद्धा सम्यक है। तत्त्व का अयथार्थ दर्शन, अयथार्थ रुचि या प्रतीति है, वह श्रद्धा मिथ्या है। तत्त्व-दर्शन का तीसरा प्रकार यथार्थता और अयथार्थता के बीच का होता है। तत्त्व का अमुक स्वरूप यथार्थ है और अमुक नहीं-ऐसी दोलायमान वृत्ति वाली भद्धा सम्यग् मिथ्या है। इसमें यथार्थता और अयथार्थता दोनों का स्पर्श होता है, किन्तु निर्णय किसी का भी नहीं जमता। इसलिए यह मिश्र है। इस प्रकार तत्वोप्राधिकता से अदा के तीन रूप बनते हैं-(१) सम्यक् -दर्शन (सम्यक्त्व ) (R) मिथ्या-दर्शन ) ( मिथ्यात्व). (३) सम्यक-मिथ्या-दर्शन (सम्यारामिथ्यात्व)।