Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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२०४] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
पंचविध दर्शन(१) ओपरामिक (२) बायोपशामिक (३) क्षायिक (४) सास्वादन (५) वेदक
मात्मा पर आठ प्रकार के सूक्ष्मतम विजातीय द्रव्यों (पुद्गल वर्गणाओं) का मलावलेप लगा रहता है "। उनमें कोई आत्म-शक्ति के आवारक हैं, कोई विकारक, कोई निरोधक और कोई पुद्गल-संयोगकारक। चतुर्य प्रकार का विजातीय द्रव्य आत्मा को मूढ़ बनाता है, इसलिए उसकी संज्ञा 'मोह' है। मूढ़ता दो प्रकार की होती है-(१) तत्त्व-मूढ़ता (२) चरित्र-मूढ़ता । तत्त्व-मूढ़ता पैदा करने वाले सम्मोहक परमाणुओं की संज्ञा दर्शन-मोह है । के विकारी होते हैं तब सम्यक्-मिथ्यात्व ( संशयशील दशा) प्रगट होता है । उनके अविकारी बन जाने पर सम्यक्त्व प्रगट होता है । उनका पूर्ण शमन हो जाने पर विशुद्धतर स्वल्पकालिक-सम्यक्त्व प्रगट होता है । उनका पूर्ण क्षय (श्रात्मा से सर्वथा विसम्बन्ध या वियोग) होने से विशुद्धतम और शाश्वतिक-सम्यक्त्व प्रगट होता है ।" । यही सम्यक्त्व का मौलिक रूप है। पूर्व रूपों की तुलना में इसे सम्यक्त्व का पूर्ण विकास या पूर्णता भी कहा जा सकता है। इस सम्मोहन पैदा करने वाले विजातीय द्रव्यों (पुद्गलों) का स्वीकरण या अविशोधन, अर्ध-शुद्धीकरण, विशुद्धीकरण, उपशमन और विलयन ये सब आत्मा के अशुद्ध और शुद्ध प्रयन के द्वारा होते हैं। इनके स्वीकरण या अविशोधन के हेतुत्रों की जानकारी के लिए कर्म-बन्ध के कारण सास्वादन-अपक्रान्तिकालीन सम्यक् दर्शन होता है । वेदक-दर्शन-सम्मोहक परमाणुओं के क्षीण होने का पहला समय जो है, वह देवक-सम्पग दर्शन है। इस काल में उन परमाणुओं का एकबारगी बेद होता है। उसके बाद वे सब आत्मा से विलग हो जाते हैं। यह प्रात्मा की वर्शन मोह-मुक्ति-रशा (सायिक-सम्यक मात्र की प्राधिया) है। इसके बार मात्मा फिर कमी दर्शन नहीं करता।