Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
मोह का मायाजाल इस छोर से उस छोर तक फैला हुआ है। वही लोक है
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एक मोह को जीतने वाला समूचे लोक को जीत लेता है । भगवान् ने कहा— गौतम ! यह सर्वदर्शी का दर्शन है, यह निःस्त्र विजेता का दर्शन है, "यह लोक-विजेता का दर्शन है ।
द्रष्टा, निःशस्त्र और विजेता जो होता है वह सब उपाधियों से मुक्त हो 'जाता है अथवा सब उपाधियों से मुक्ति पानेवाला व्यक्ति ही द्रष्टा, निःस्शत्र या विजेता हो सकता है ।
यह दृष्टा का दर्शन है, यह शस्त्र-हीन विजेता का दर्शन है। क्रोध, मान, माया और लोभ को त्यागने वाला ही इसका अनुयायी होगा । वह सब से पहले पराजय के कारणों को समझेगा, फिर अपनी भूलों से निमंत्रित पराजय को विजय के रूप में बदल देगा " |
लोकसार
गौतम -- भगवन् ! जीवन का सार क्या है ?
भगवान् गौतम ! जीवन का सार है -- श्रात्म स्वरूप की उपलब्धि । गौतम - भगवन् ! उसकी उपलब्धि के साधन क्या है ? भगवान् — गौतम ! अन्तर्-दर्शन, अन्तर्-शान और अन्तर्-1 र-विहार । जीवन का सार क्या है ? यह प्रश्न आलोचना के आदिकाल से चर्चा जा रहा है।
विचार-सृष्टि के शैशव काल में जो पदार्थ सामने आया, मन को भाया, वही सार लगने लगा। नश्वर सुख के पहले स्पर्श ने मनुष्य को मोह लिया। वही सार लगा। किन्तु ज्योंही उसका विपाक हुआ, मनुष्य चिल्लाया- "सार की खोज अभी अधूरी है। प्रापातभद्र और परिणाम- बिरस जो है वह सार नहीं है; क्षणभर सुख दे और चिरकाल तक दुःख दे, वह सार नहीं है; थोड़ा सुख दे और अधिक दुख दे, वह सार नहीं है ।"
बहिर् - जगत् ( दृश्य या पौद्गलिक जगत् ) का स्वभाव ही ऐसा है । उसके गुण-स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द-आते हैं, मन को लुभा चले जाते हैं।