Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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१९२]
धर्म
धर्म
काश
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
एक जीव
स्कन्ध
एक
एक
एक
अनन्त
पुद्गल (द्वि प्रदेशी यावत्
अनन्त प्रदेशी)
एक
देश
अनियत
अनियत
नियत
अनियत
श्रनियत
प्रदेश
असंख्य
संख्य
अनन्त
दो यावत् अनन्त
परमाणु
संख्य
1
काल के अतीत समय नष्ट हो जाते हैं । अनागत समय अनुत्पन्न होते हैं। इसलिए उसका स्कन्ध नहीं बनता । वर्तमान समय एक होता है, इसलिए उसका तिर्यक्प्रचय ( तिरछा फैलाव ) नहीं होता । काल का स्कन्ध या तिर्थक् प्रचय नहीं होता, इसलिए वह अस्तिकाय नहीं है ।
दिगम्बर-परम्परा के अनुसार कालाणुओं की संख्या लोकाकाश के अवस्थित है । इसलिए इसके
तुल्य है। आकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक काला काल- शक्ति और व्यक्ति की अपेक्षा एक प्रदेश वाला है । तिर्यक - प्रचय नहीं होता । धर्म आदि पांचों द्रव्य के तिर्यक्- प्रचय क्षेत्र की अपेक्षा से होता है । और ऊर्ध्व प्रचय काल की अपेक्षा से होता है। उनके प्रदेश
1
समूह होता है, इसलिए वे फैलते हैं और काल के निमित्त से उनमें पौर्वापर्य या क्रमानुगत प्रसार होता है। समयों का प्रचय जो है वही काल द्रव्य का ऊर्ध्व प्रचय है। काल स्वयं समय रूप है। उसकी परिणति किसी दूसरे