Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
View full book text
________________
220 ]
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
सकता था । उस उत्साही निरीक्षक ने शेष में इस सिद्धान्त का अन्वेषण किया कि पृथ्वी थाली के आकार चपटी है जिसके चारों तरफ सूर्य उत्तर से दक्षिण की तरफ घूमता है। उसने यह भी प्रगट किया कि ध्रुव ५०० माइल दूर है और सूर्य का व्यास १० माइल है ।"
।
जैन- दृष्टि से पृथ्वी को चिपटा माना गया है—- यह समग्रता की दृष्टि से है । विशाल भूमि के मध्यवर्ती बहुत सारे भूखण्ड वर्तुलाकार भी मिल सकते हैं । श्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार लङ्का से पश्चिम की ओर आठ योजन नीचे पाताल लङ्का है १२६ ।
काल-परिवर्तन के साथ-साथ भरत व ऐरावत के क्षेत्र की भूमि में ह्रास होता है - "भरतैरावतयो बृद्धि हासौ ... तत्त्वार्थ ३३२८ ताभ्यामपरा भूमयोपस्थिता... ३।२६ श्लोक वार्तिककार विद्यानन्द स्वामी ने - तात्स्थ्यात् तच्छब्दासिद्धे भरतैरावतयो वृद्धिह्रासयोगः, अधिकरणनिर्देशो वा ” - तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक ३।२८ टीका पृ० ३५४ त्रिलोकसार में प्रलय के समय पृथ्वी को १ योजन विध्वस्त होना माना है - "तेहिंतो सेसजणा, नस्संति विसग्गिवरिसदमही ।
इगि जोयण मेत्त मध्धो, चुण्णी किजदिहु कालवसा ।
( ति० ८६७)
इसका तात्पर्य यह है कि भोग-भूमि के प्रारम्भ से ही मूल जम्बूद्वीप के समतल पर 'मलत्रा' लदता चला आ रहा है, जिसकी ऊँचाई अति दुषमा के अन्त में पूरी एक योजन हो जाती है। वही 'मलवा' प्रलयकाल में साफ हो जाता है और पूर्व वाला समतल भाग ही निकल आता है । इस बढ़े हुए 'मलवे' के कारण ही भूगोल मानी जाने लगी है। अनेक देश नीचे और ऊपर विषम स्थिति में आ गए हैं। इस प्रकार वर्तमान की मानी जाने वाली भूगोल के भी जैनशास्त्रानुसार अर्ध सत्यता या आंशिक सत्यता सिद्ध हो जाती है एवं समतल की प्रदक्षिणा रूप अर्ध नारंगी के समान गोलाई भी सिद्ध हो जाती है ।
चर-अचर :
जैन-दृष्टि के अनुसार पृथ्वी स्थिर है। वर्तमान के भूगोलवेत्ता पृथ्वी को