Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
पश्चिम, दोनों पार्श्व दक्षिण और उत्तर होते हैं। इन्हें प्रज्ञापक- दिशा कहा
जाता है. १९
काल :
श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार काल औपचारिक द्रव्य है । वस्तु वृत्त्या वह जीव और जीव की पर्याय है ५१ । जहाँ इसके जीव अजीव की पर्याय होने का उल्लेख है, वहाँ इसे द्रव्य भी कहा गया है " "। ये दोनों कथन विरोधी नहीं किन्तु सापेक्ष है। निश्चय दृष्टि में काल जीव-जीव की पर्याय है और व्यवहार-दृष्टि में वह द्रव्य है । उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है -- " उपकारकं द्रव्यम् ।" वर्तना आदि काल के उपकार हैं। इन्हीं के कारण वह द्रव्य माना जाता है। पदार्थों की स्थिति आदि के लिए जिसका व्यवहार होता है, वह श्रावलिकादिरूप काल जीव, जीव से भिन्न नहीं है, उन्हीं की पर्याय है ५३
दिगम्बर आचार्य काल को रूप मानते हैं ५४ । वैदिक दर्शनों में भी काल के सम्बन्ध में नैश्चियक और व्यावहारिक दोनों पक्ष मिलते हैं 1 नैयायिक और वैशेषिक काल को सर्वव्यापी और स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं ५५ । योग सांख्य आदि दर्शन काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते ५ ६ ।
कालवाद का आधार
श्वेताम्बर - परम्परा की दृष्टि से औपचारिक और दिगम्बर-परम्परा की दृष्टि से वास्तविक काल के उपकार या लिंग पांच हैं-वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ५७ | न्याय दर्शन के अनुसार परत्व और अपरत्व आदिकाल के लिंग है ५८ वैशेषिक- पूर्व, अपर, युगपत्, अयुगपत् चिर और चित्र को काल के लिंग मानते हैं ५९ ।
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कालाणुओं के अस्तित्व का आधार
एगम्हि संति समये, सम्भव ठिइयास सण्णिदा श्रडा |
समयस्स सम्बकाल, एसहि काला सन्भावो -- प्रत० १४३
एक-एक समय में उत्पाद, धौव्य और व्यय नामक अर्थ काल के सदा होते
हैं। यही कालाणु के अस्तित्व का हेतु है ।