Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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२ पक्ष
-एक मास २ मास
-एक ऋतु ३ ऋतु
-एक अयन २ अयन
--एक साल ५ साल
-एक युग ७० कोडाकोड़ ५६ लाख कोड़ वर्ष एक पूर्व असंख्य वर्ष
-एक पल्योपम १० कोडाकोड़ पल्योपम -एक सागर २० क्रोडाकोड़ सागर -एक काल चक्र अनन्त काल चक्र -एक पुद्गल परावर्तन
इन सारे विभागों को संक्षेप में अतीत, प्रत्युत्पन्न-वर्तमान और अनागत कहा जाता है। पुद्गल
विज्ञान जिमको मैटर (Matter ) और न्याय वैशेषिक आदि जिसे भौतिक तत्त्व कहते हैं, उसे जैन-दर्शन में पुद्गल संज्ञा दी है। . बौद्ध-दर्शन में पुद्गल शब्द आलय विज्ञान-चेतनासन्तति के अर्थ में प्रयुक्त हुश्रा है। जैन. शास्त्रों में भी अभेदोपचार से पुद्गल युक्त आत्मा को पुद्गल कहा है। किन्तु मुख्यतया पुद्गल का अर्थ है मूर्तिक द्रव्य । छह द्रव्यों में काल को छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय है-यानी अवयवी है, किन्तु फिर भी इन सबकी स्थिति एक सी नहीं । जीव, धर्म, अधर्म और आकाश-ये चार अविभागी हैं। इनमें संयोग और विभाग नहीं होता। इनके अवयव परमाणु द्वारा कल्पित किये जाते हैं। कल्पना करो-यदि इन चारों के परमाणु जितने-जितने खण्ड करें तो जीव, धर्म अधर्म के असंख्य और आकाश के अनन्त खण्ड होते हैं। पुद्गल अखंड द्रव्य नहीं है। उसका सबसे छोटा रूप एक परमाणु है और सबसे बड़ा रूप है विश्वव्यापी अचित महास्कन्ध इसीलिए उसको पूरणगलन-धर्मा कहा है। छोटा-बड़ा सूक्ष्म-स्थूल, हल्का-मारी, लम्बा-चौड़ा, बन्धभेद, श्राकार, प्रकाश-अन्धकार, ताप-छाया इनको पौद्गलिक मानना जैन तस्व-शान की सूक्ष्म-दृष्टि का परिचायक है।
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