Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व (२१३ यहाँ चन्द्रमा। इसलिए वहाँ समय का माप नहीं है। तिरबालोक असंख्य योजन का है, उसमें मनुष्य-लोक सिर्फ ४५ लाख योजन का है। पृथ्वी का इतना बड़ा रूप वर्तमान की साधारण दुनियां को भले ही एक कल्पना-सा लगे, किन्तु विज्ञान के विद्यार्थी के लिए कोई आश्चर्यजनक नहीं। वैज्ञानिकों ने ग्रह, उपग्रह और ताराओं के रूप में असंख्य पृथ्वियां मानी हैं। वैज्ञानिक जगत् के अनुसार-"ज्येष्ठ तारा इतना बड़ा है कि उसमें हमारी वर्तमान दुनिया जैसी सात नील पृथ्वियां समा जाती है . वर्तमान में उपलब्ध पृथ्वी के बारे में एक वैज्ञानिक ने लिखा है-"और तारों के सामने यह पृथ्वी एक धूल के कण के समान है .११ विज्ञान निहारिका की लम्बाई-चौड़ाई का जो वर्णन करता है, उसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति आधुनिक या विज्ञानवादी होने के कारण ही प्राच्य वर्णनों को कपोल-कल्पित नहीं मान सकता।" नंगी
आँखों से देखने से यह निहारिका शायद एक धुंधले बिन्दु मात्र-सी दिखलाई पड़ेगी, किन्तु इसका श्राकार इतना बड़ा है कि हम बीस करोड़ मील व्यास वाले गोले की कल्पना करें, तब ऐसे दस लाख गोलों की लम्बाई-चौड़ाई का अनुमान करें-फिर भी उक्त निहारिका की लम्बाई-चौड़ाई के सामने उक्त अपरिमेय श्राकार भी तुच्छ होगा और इस ब्रह्माण्ड में ऐसी हजारों निहारिकाएं हैं। इससे भी बड़ी और इतनी दूरी पर हैं कि १ लाख ८६ हजार मील प्रति सेकेण्ड चलने वाले प्रकाश को वहाँ से पृथ्वी तक पहुँचने में १० से ३० लाख वर्ष तक लग सकते हैं .११ वैदिक शास्त्रों में भी इसी प्रकार अनेक द्वीपसमुद्र होने का उल्लेख मिलता है। जम्बूद्वीप, भरत आदि नाम भी समान ही हैं। आज की दुनियां एक अन्तर-खण्ड के रूप में है। इसका शेष दुनिया से सम्बन्ध जुड़ा हुआ नहीं दीखता। फिर भी दुनियां को इतना ही मानने का कोई कारण नहीं। आज तक हुई शोधों के इतिहास को जानने वाला इस परिणाम तक कैसे पहुंच सकता है कि दुनिया बस इतनी है और उसकी अन्तिम शोध हो चुकी है।
अलोक का आकाश अनन्त है। लोक का आकाश सीमित है | अलोक की तुलना में लोक एक छोटा-सा टुकड़ा है। अपनी सीमा में वह .. बहुत बड़ा है। पृथ्वी और उसके आश्रित जीव और अणीव आदि सारे द्रव्य