Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
परिणामी नित्यत्ववाद परिणाम की व्याख्या करते हुए पूर्वाचार्यों ने लिखा है
"परिणामो पर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम्। न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तदविदामिष्टः ॥ १॥ सत्पर्यायेण विनाशः, प्रादुर्भावोऽसता च पर्मयतः ।।
द्रव्याणां परिणामः, प्रोक्तः खलु पर्यवनयस्य ?" ॥२॥ जो एक अर्य से दूसरे अर्थ में चला जाता है-एक वस्तु से दूसरी वस्तु के रूप में परिवर्तित हो जाता है, उसका नाम परिणाम है । यह परिणाम द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से होता है। सर्वथा व्यवस्थित रहना या सर्वथा नष्ट हो जाना परिणाम का स्वरूप नहीं है। वर्तमान पर्याय का नाश और अविद्यमान पर्याय का उत्पाद होता है, वह पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से होने वाला परिणाम है। द्रव्यार्थिक नय का विषय द्रव्य है । इसलिए उसकी दृष्टि से सत् पर्याय की अपेक्षा जिसका कथंचित् रूपान्तर होता है, किन्तु जो सर्वथा नष्ट नहीं होता, वह परिणाम है। पर्यायार्थिक नय का विषय पर्याय है। इसलिए उसकी दृष्टि से जो सत् पर्याय से नष्ट और असत् पर्याय से उत्पन्न होता है, वह परिणाम है। दोनों दृष्टियों का समन्वय करने से द्रव्य उत्पाद, व्यय, धौव्यात्मक बन जाता है। जिसको हम दूसरे शब्दों में परिणामी-नित्य या कथंचित्-नित्य कहते हैं।
आगम की भाषा में जो गुण का अाश्रय-अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड है-वही द्रव्य है । इनमें पहली परिभाषा स्वरूपात्मक है और दूसरी अवस्थात्मक दोनों में समन्वय का तात्पर्य है-द्रव्य को परिणामी नित्य स्थापित करना।
द्रव्य में दो प्रकार के धर्म होते हैं-सहभावी ( यावत् द्रव्यमावी)-गुण और क्रममावी पर्याय । बौद्ध सत् द्रव्य को एकान्त अनित्य (निरन्वय क्षणिककेवल उत्पाद-विनाश स्वभाव ) मानते हैं, उस स्थिति में वेदान्ती सत्पदार्थबम को एकान्त नित्य । पहला परिवर्तनवाद है तो दूसरा नित्यसत्तावाद । जैन-दर्थन इन दोनों का समन्वय कर परिणामि नित्यत्ववाद स्थापित करता है, जिसका श्राशय यह है कि..सत्ता भी है और परिवर्तन भी-द्रव्य