Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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न बान के मौखिक वाप .. १६ देती हैं। एक वर्ग का महंभाव, एसरे वर्ग की हीनता, स्श्य ता और अस्पृश्यता की भावना का जो 'विस्तार हुना, उसका मूल कारण यही जन्मात कर्मव्यवस्था है। यदि कर्मगत जाति-व्यवस्था होती तो ये बुद्र धारणाएँ उत्पन्न नहीं होतीं। । सामयिक क्रान्ति के फलस्वरूप बहुत सारे शगुल में उत्पन्न व्यकि विद्याप्रधान, आचारप्रधान बने। क्या वे सही अर्थ में ब्राह्मण नहीं ! क्या वह सही अर्थ में अन्त्यज नहीं ! वर्षों के ये गुणात्मक नाम ही जातिवाद की अतात्विकता बतलाने के लिए काफी पुष्ट प्रमाण है।
कौन-सी जाति ऊँची और कौन-सी नीची-इसका भी एकान्त-दृष्टि से उत्तर नहीं दिया जा सकता। वास्तविक दृष्टि से देखें तो जिस जाति के बहुसंख्यकों के प्राचार-विचार सुसंस्कृत और संयम-प्रधान होते हैं, वही जाति श्रेष्ठ है"। व्यवहार-दृष्टि के अनुसार जिस समय जैसी लौकिक धारणा होती है, वही उसका मानदण्ड है। किन्तु इस दिशा में दोनों की संगति नहीं होती। वास्तविक दृष्टि में जहाँ संयम की प्रधानता रहती है, वहाँ व्यवहार-दृष्टि में अहंभाव या स्वार्थ की। वास्तविक दृष्टिवालों का इसके विरुद्ध संघर्ष चालू रहे-यही उसके आधार पर पनपनेवाली बुराइयों का प्रतिकार है।
जैनों और बौद्धों की क्रान्ति का ब्राह्मणों पर प्रभाव पड़ा; यह पहले बताया गया है। जैन-आचार्य भी जातिवाद से सर्वथा अछूते नहीं रहे-यह एक तथ्य है, इसे हम दृष्टि से श्रोमल नहीं कर सकते। आज भी जैनों पर कुछ जातिवाद का असर है। समय की मांग है कि जैन इस विषय पर पुनर्विचार करें। घृणा पाप से करो पापी से नहीं ___ जो सम्यक दृष्टि है, जिन्हें देह और जीव में वैध दर्शन की दृष्टि मिली है, वे देह-भेद के आधार पर जीव-मेद नहीं कर सकते । जीव के लक्षण ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के देह-भेद के आधार पर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए ।
जो व्यक्ति देह-मेव के आधार पर जीवों में भेद मानते हैं, वे शान दर्शन और चारित्र को जीव का लक्षण नहीं मानते।