Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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होने पर कुछ भी नहीं है। पांच भूतों से प्राण बनता है। उनके अभाव में .
प्राणनाश हो जाता है-मृत्यु हो जाती है। फिर कुछ भी बचा नहीं रहता । श्रात्मवादी आत्मा को शाश्वत मानते हैं। इसलिए उन्होंने पुनर्जन्म सिद्धान्त की स्थापना की। कर्म-लिप्त आत्मा का जन्म के पश्चात् मृत्यु और मृत्यु के पश्चात् जन्म होना निश्चित है। संक्षेप में यही पुनर्जन्मवाद का सिद्धान्त है ।
जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म की परम्परा चलती है-यह विश्व की स्थिति है ० । जीव अपने ही प्रमाद से भिन्न-भिन्न जन्मान्तर करते हैं" । पुनर्जन्म कर्म-संगी जीवों के ही होता है" ।
आयुष्य-कर्म के पुद्गल - परमाणु जीव में ऊँची-नीची, तिरखी-लम्बी और उसी के अनुसार जीव नए जन्म
छोटी गति की शक्ति उत्पन्न करते हैं । स्थान में जा उत्पन्न होते हैं।
राग-द्वेष कर्मबन्ध के और कर्म जन्म-मृत्यु की परम्परा के कारण हैं। इस विषय में सभी क्रियावादी एक मत है। भगवान् महावीर के शब्दों में "क्रोध, मान, माया और लोभ - ये पुनर्जन्म के मूल को पोषण देने वाले है७४ | गीता कहती है- "जैसे फटे हुए कपड़े को छोड़कर मनुष्य नया कपड़ा पहिनता है, वैसे ही पुराने शरीर को छोड़कर प्राणी मृत्यु के बाद, नए शरीर को धारण करते हैं७५ | यह श्रावर्तन प्रवृत्ति से होता है। महात्मा बुद्ध ने अपने पैर में चुभने वाले कांटे की पूर्वजन्म में किए हुए प्राणीवच का विपाक बताया " | नव-शिशु के हर्ष, भय, शोक आदि होते हैं। उसका कारण पूर्वजन्म की स्मृति है ७८ | नव-शिशु स्तन पान करने लगता है। आहार के अभ्यास से ही होता है"। जिस प्रकार युवक का शरीर बालकशरीर की उत्तरवर्ती अवस्था है, वैसे ही बालक का शरीर पूर्वजन्म के बाद में होने वाली अवस्था है। यह देह प्राप्ति की अवस्था है। इसका जो अधिकारी है, वह आत्मा देही है ।
यह पूर्वजन्म में किए हुए
वर्तमान के सुख-दुःख अन्य सुख-दुःख पूर्वक होते हैं। सुख-दुःख का अनुभव बही कर सकता है, जो पहले उनका अनुभव कर चुका है। नव-शिशु को जो सुख-दुःख का अनुभव होता है, वह भी पूर्व अनुभव युक्त है। जीवन
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