Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व उत्पत्ति स्थान एवं कुल-कोटि के अध्ययन से जाना जाता है कि प्राणियों की विविधता एवं भिन्नता का होना असम्भव नहीं। स्थावर-जगत्
उक्त प्राणी विभाग जन्म-प्रक्रिया की दृष्टि से है...गति की दृष्टि से प्राणी दो भागों में विभक्त होते हैं। (१) स्थावर और (२) त्रस। त्रस जीवों में गति, आगति, भाषा, इच्छाव्यक्तिकरण आदि-आदि चैतन्य के स्पष्ट चिह्न प्रतीत होते हैं, इसलिए उनकी सचेतनता में कोई सन्देह नहीं होता। स्थावर जीवों में जीव के व्यावहारिक लक्षण स्पष्ट प्रतीत नहीं होते, इसलिए उनकी सजीवता चक्षुगम्य नहीं है। जैन सूत्र बताते हैं-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु
और वनस्पति के पांचौ स्थावर-काय सजीव हैं। इसका आधारभूत सिद्धान्त यह है-हमें जितने पुद्गल दीखते हैं, ये सब जीवशरीर या जीव-मुक्त शरीर हैं। जिन पुद्गल-स्कन्धों को जीव अपने शरीर रूप में परिणत कर लेते हैं, उन्हीं को हम देख सकते हैं, दूसरों को नहीं। पांच स्थावर के रूप में परिणत पुद्गल दृश्य हैं। इससे प्रमाणित होता है कि वे सजीव हैं। जिस प्रकार मनुष्य का शरीर उत्पत्तिकाल में सजीव ही होता है, उसी प्रकार पृथ्वी
आदि के शरीर भी प्रारम्भ में सजीव ही होते हैं। जिस प्रकार स्वाभाविक अथवा प्रायोगिक मृत्यु से मनुष्य-शरीर निजींव या आत्म-रहित हो जाता है उसी प्रकार पृथ्वी आदि के शरीर भी स्वाभाविक या प्रायोगिक मृत्यु से निजींव बन जाते हैं। सिद्धान्त की भाषा में
(१) पृथ्वी-मिट्टी...सचित्त-सजीव है। (२) पानी..... सचित हैं–तरलमात्र वस्तु सजीव होती है । (३) अमि..... सचित्त है-प्रकाश या ताप मात्र जीव संयोग से
पैदा होता है। (४) वायु......:सचित है। (५) बनस्पति.. सचित्त है।
बिरोधी शस्त्र या घातक पदार्थ द्वारा उपहत होने पर ये अचिव-निर्जीव बन जाते हैं। इनकी सजीवता का बोध कराने के लिए पूर्ववतीं प्राचार्यों ने तुलनात्मक युक्तियां भी प्रस्तुत की है। जैसे