Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
View full book text
________________
१६० ] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
युग-परिवर्तन के साथ-साथ इन चार वर्षों के संयोग से अनेक उपवर्ण व जातियां बन गई।
वैदिक विचार के अनुसार चार वर्ण सृष्टि-विधानसिद्ध है। जैन-दृष्टि के अनुसार ये नैसर्गिक नहीं हैं। इनका वर्गीकरण क्रिया-भेद की भित्ति पर हुआ है।
जैनाचार्य जाति को विधान-सिद्ध बनाने की और मुके, वह वैदिक प्रभुत्व के वातावरण से पैदा होने वाली समन्वय मुखी स्थिति का परिणाम है । उसी समय जैन-परम्परा में स्पृश्य'-अस्पृश्य जैसे विभाग और जाति के शुद्धीकरण आदि तत्त्वों के बीज बोये गए।
जातिवाद के खण्डन में भी जैन विद्वान् बड़ी तीव्र गति से चले । पर समय की महिमा समझिए-आज वह जैन समाज पर छाया हुआ है। . कर्म-विपाक कृत उच्चता-नीचता
उच्चत्व और नीचत्व नहीं होता, यह अभिमत नहीं है। वे हैं, किन्तु चनका सम्बन्ध व्यक्ति के जीवन से है, रत-परम्परा से नहीं। ब्राह्मण-परम्परा का गोल रक्त-परम्परा का पर्यायवाची माना जाता है। जैन-परम्परा में गोष शंम्ब का व्यवहार (१) जाति (२) कुल (३) बल (४) रूप (५) तप (६) लाभ (७) श्रुत (८) ऐश्वर्य-इनके प्रकर्ष और अपकर्ष दशा सूचन के लिए हुआ है। ___ गोत्र के दो भेद है-उच और नीच। पूज्य, सामान्य तथा विशिष्ट भ्यक्ति का मोत्र उच्च और अपूज्य, असमान्य तथा अवशिष्ट व्यक्ति का गोत्र नीच होता है। 'गोत्र' शब्द का यह ब्यापक अर्थ है। यह गोत्र कर्म से सम्बन्धित है। साधारणतया गोत्र का अर्थ होता है-'वंश, कुछ और जाति ।
निर्धन, कुरूप और बुद्धिहीन व्यक्ति भी अमुक कुल या जाति में उत्पन्न होने के कारण बड़ा माना जाए, सत्कार और सम्मान पाए, यह जाति था कुल-प्रतिष्ठा है। इसी का नाम है-उच्च गोत्र । नीच गोत्र इसका प्रतिपक्ष है। मनुष्य मच गोत्री और बीच होत्री शेकों प्रकार के
पुण्य, सामान्य तथा वा