Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तस्व
क्षीणकाय, जितेन्द्रिय,
और भय से अतीत है उसे ब्राह्मण कहते हैं, जो तपस्वी रख और मांस से अपचित सुत्रत और शान्त है, उसे ब्राह्मण कहते हैं। जो क्रोध, लोभ, भय और हास्य -वश असत्य नहीं बोलता, उसे ब्राह्मण कहते हैं । जो सजीव या निर्जीव थोड़ा या बहुत आदत नहीं लेता, उसे ब्राह्मण कहते हैं । जी स्वर्गीय, मानवीय और पाशविक किसी भी प्रकार का ब्रह्मचर्य सेबन नहीं करता, उसे ब्राह्मण कहते हैं ।
जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल उससे ऊपर रहता है । उसी 1 प्रकार जो काम-भोगों से ऊपर रहता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं। जो स्वादवृत्ति, निःस्पृहभाव से भिक्षा लेने वाले, घर और परिग्रह से रहित और गृहस्थ से अनासक्त है, उसे ब्राह्मण कहते हैं। जो बन्धनों को छोड़कर फिर से उनमें अ. सक नहीं होता, उसे ब्राह्मण कहते हैं
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ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-ये कार्य से होते हैं २७ । तत्त्व-दृष्य्या व्यक्ति को ऊंचा या नीचा उसके श्राचरण ही बनाते हैं। कार्य-विभाग से मनुष्य का श्रेणी - विभाग होता है, वह उच्चता व नीचता का मानदण्ड नहीं है ।
जाति गर्व का निषेध
यह जीव नाना गोत्र वाली जातियों में श्रावर्त करता है । कभी देव बन जाता है, कभी नैरयिक, कभी असुर काय में चला जाता है, कभी क्षत्रिय तो कभी चाण्डाल, और वोक्स भी कभी कीड़ा और जुगुनू तो कभी कुंथू और चींटी बन जाता है। जब तक संसार नहीं कटता, तब तक यह चलता ही रहता है। अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार अच्छी-बुरी भूमिकाओं का संयोग मिलता ही रहता है | इसलिए उत्तम पुद्गल, ( उत्तम श्रात्मा ) तत्त्व- द्रष्टा और साधना-शील पुरुष जाति-मद न करे २९
यह जीव अनेक बार उच्च गोत्र में और अनेक बार नीच गोत्र में जन्म ले चुका है। पर यह कभी भी न बड़ा बना और न छोटा । इसलिये जाति-मद नहीं करना चाहिए। जो कभी नीच गोत्र में जाता है, वह भी चला जाता है और उच्च गोत्री नीच गोत्री बन जाता है। यूं जानकर भी
कभी उच्च गोत्र में