Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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१३०] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व के उदय से चंचल बनता है)। आत्मा की पवित्रता और चंचलता-इन दोनों की संयुक्त संज्ञा शुभ-योग है। यह दो कारणों की संयुक्त निष्पत्ति है। इसलिए इससे दो कार्य (पाप-कर्म का विकर्षण और पुण्य-कर्म का आकर्षण निष्पन्न होते हैं। वास्तव में यह व्यावहारिक निरूपण है। पाप-कर्म का विकर्षण आत्मा की पवित्रता से होता है और पुण्य-कर्म का आकर्षण होता है, वह आत्मचंचलता-जनित अनिवार्यता है । जब तक आत्मा चंचल होता है, तब तक कर्म परमाणुओं का आकर्षण कभी नहीं रुकता । चंचलता के साथ श्रात्मा की पवित्रता (अमोह या वितरागभाव ) का योग होता है तो पुण्य के परमाणुओं का और उसके साथ आत्मा की अपवित्रता (मोह ) का योग होता है तो पापं के परमाणुओं का आकर्षण होता है । यह आकर्षण चंचलता का अनिवार्य परिणाम है। चंचलता रुकते ही उनका आकर्षण रुक जाता है। आत्मा पूर्ण अनास्रव हो जाता है। कर्म का नाना रूपों में दर्शन
बद्ध आत्मा के द्वारा आठ प्रकार की पुद्गल-वर्गणाएं गृहीत होती हैं । उनमें कार्मण वर्गणां के जो पुद्गल हैं, वे कर्म बनने के योग्य ( कर्म-प्रायोग्य ) होते हैं । उनके तीन लक्षण हैं-(१) अनन्त-प्रदेशी-स्कन्धत्व (२) चतुःस्पर्शित्व, (३) सत्-असतू-परिणाम-ग्रहण योग्यत्व' ।
(१) संख्यात-असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध कम रूप में परिणत नहीं हो सकते। (२) दो, तीन, चार, पांच, छह, सात और आठ स्पर्श वाले पुद्गल स्कन्ध-कर्म रूप में परिणत नहीं हो सकते। (३) आत्मा की सत् असत् प्रवृत्ति (शुभ-अशुम पासव ) के बिना सहज प्रवृत्ति से ग्रहण किये जाने वाले पुद्गल स्कन्ध कम-रूप में परिणत नहीं हो सकते। कर्म-प्रायोग्य पुद्गल ही आत्मा की सत्-असत् प्रवृत्ति द्वारा गृहीत होकर कर्म बनते हैं। कर्म की पहली अवस्था बन्ध है और अन्तिम अवस्था है वेदना। कर्म के विसम्बन्ध की अवस्था निर्जरा है। किन्तु वह कर्म की नहीं होती, अकर्म की होती है। बेदना कर्म की होती है और निर्जरा अकर्म की । इसलिए व्यवहार में कर्म की अन्तिम दशा निर्जरा और निश्चय में वह बेदना मानी गई है । बन्ध और