Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
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यह उक्ति भी निराधार नहीं है। शरीर और मन दोनों परस्परानेच है। इनमें एक दूसरे की क्रिया का एक दूसरे पर असर हुए बिना नहीं रहता । "जल्लेखाइ दम्बाइ श्रादिग्रन्ति तल्केसे परिणामे भवा १९११ जिस लेश्या के द्रव्य ग्रहण किये जाते हैं, उसी लेश्या का परिणाम हो जाता है । इस आगम वाक्य से उक्त विषय की पुष्टि होती है । व्यावहारिक जगत् में मी यही बात पाते हैं । प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली में मानस-रोगी को सुधारने के लिए विभिन्न रंगों की किरणों का या विभिन्न रंगों की बोतलों के जलों का प्रयोग किया जाता है। योग-प्रणाली में पृथ्वी, जल आदि तत्त्वों के रंगों के परिवर्तन के अनुसार मानस परिवर्तन का क्रम बतलाया है।
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इस पूर्वोक्त विवेचन से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्य -लेश्या के साथ भाव - लेश्या का गहरा सम्बन्ध है । किन्तु यह स्पष्ट नहीं होता कि द्रव्यलेश्या के ग्रहण का क्या कारण है ? यदि भाव लेश्या को उसका कारण मानें तो उसका अर्थ होता है--भाव-लेश्या के अनुरूप द्रव्य- लेश्या, न कि द्रव्यलेश्या के अनुरूप भाव-लेश्या । ऊपर की पंक्तियों में यह बताया गया है कि द्रव्य - लेश्या के अनुरूप भाव-लेश्या होती है। यह एक जटिल प्रश्न है। इसके समाधान के लिए हमें लेश्या की उत्पत्ति पर ध्यान देना होगा । भाव-लेश्या यानी द्रव्य - लेश्या के साहाय्य से होने वाले आत्मा के परिणाम की उत्पत्ति दो प्रकार से होती है-मोह-कर्म के उदय से तथा उसके उपशम, क्षय या क्षयोपशम से १२० | श्रदयिक भाव- लेश्याएं बुरी ( श्रप्रशस्त ) होती है और औपशमिक, क्षायिक या क्षयोपशमिक लेश्याएं भली ( प्रशस्त ) होती हैं । कृष्ण, नील और कापोत — ये तीन प्रशस्त और तेज, पद्म एवं शुक्ल —ये तीन प्रशस्त लेश्याएं हैं। प्रज्ञापना में कहा है- "तो दुग्गइ गामिनि श्रो, तश्री सुग्गइ गामिणिश्र ११२१. -अर्थात् पहली तीन लेश्याएं बुरे श्रध्यबसायबाली हैं, इसलिए वे दुर्गति की हेतु हैं। उत्तरवर्ती तीन लेश्याए भले अध्यवसायबाली हैं, इसलिए वे सुगति की हेतु हैं। उत्तराध्ययन में इनको अधर्म लेश्या और धर्मलेश्या भी कहा है- " किएहा नीला काऊ, तिरिण वि एमाओ अहम्मलेसाचो ।......तेऊ पम्हा सुक्काए, तिविण बि एयाओ धम्म लेताओ" " कृष्ण, नील और कम्पोत- ये तीन अधर्म पाए हैं और तेजः, पस एवं शुक्
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