Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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१४] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
(१) बौदविक (२) औपशामक (३) क्षायिक (४) बायोपशमिक ।
बाहरी पुद्गलों के संयोग-वियोग से असंख्य-अनन्त अवस्थाएं बनती हैं। पर वे जीव पर अान्तरिक असर नहीं डालती, इसलिए उनकी मीमांसा भौतिक-शास्त्र या शरीर-शास्त्र तक ही सीमित रह जाती हैं। यह मीमांसा
आत्मा द्वारा स्वीकृत किये गये कर्म-पुद्गलों के संयोग-वियोग की है। जीवसंधुक कर्म-परमाणुओं के परिपाक या उदय से जीव में ये अवस्थाएं होती हैं:___ गति-नरक, तिर्येच, मनुष्य व देव । • काय-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस काय, वायु काय, वनस्पतिकाय, अस काय।
कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ । वेद-स्त्री, पुरुष, नपुंसक। लेश्या-कृष्ण, नील, कापोत, तेजस्, पद्म, शुक्ल प्रादि-आदि १२७॥
कर्मत्रियोग के तीन रूप है-उपशम, क्षय ( सर्व-विलय ) और क्षयोपशम (अंश-विलय )। उपशम केवल 'मोह' का ही होता है। उससे (औपशमिक) सम्यक दर्शन व चरित्र-दो अवस्याएं बनती हैं १५८१
क्षय सभी कर्मों का होता है। दायिकमाव आत्मा का स्वभाव है। श्रावरण, वेदना, मोह, आयु, शरीर,गोत्र और अन्तराय-ये कर्म कृत वैभाविक अवस्थाएं हैं। इनका क्षय होने पर आत्मा का स्वभावोदय होता है। फिर आत्मा निरावरण, अवेदन, निर्मोह, निरायु, अशरीर, अगोत्र और निरन्तराय हो जाता है । शानात्मक चेतना के आवारक पुद्गलों के अंश-विलय से होने वाले आत्मिक विकास का क्रम इस प्रकार है-इन्द्रिय-ज्ञान-मानस शान-चौद्गलिक वस्तुओं का प्रत्यक्ष शान ।
परिभाषा के शब्दों में इनकी प्रारम्भिक अमेदात्मक-दशा को दर्शन, उत्तरवती या विश्लेषणात्मक दशा को शान कहा जाता है। ये सम्यक् दृष्टि के ही वो इन्हें ज्ञान और मिथ्या दृष्टि के हों तो अशान कहा जाता है।
मोह के अंश-विलय से सम्यक् भदा और सम्यक प्राचार का सलीम विकास होता है।