Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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'जैन दर्शन के मौलिक तत्व
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निर्ज
संयम का अंतिम परिणाम बियोग है। आत्मा और परमाणु-वे दोनों मिन्न हैं। वियोग में श्रात्मा श्रात्मा है और परमाणु परमाणु । इनका संयोग होता है, आत्मा रूपी कहलाती है और परमाणु कर्म ।
कर्म-प्रायोम्प परमाणु श्रात्मा से चिपट कर्म बन जाते हैं। उस पर अपना प्रभाव डालने के बाद वे अकर्म बन जाते हैं, अकर्म बनते ही वे श्रात्मा से बिलग हो जाते हैं। इस बिलगाव की दशा का नाम है --निर्जरा ।
निर्जरा कमों की होती है—यह औपचारिक सत्य है। वस्तु सत्य यह है कि कर्मों की वेदना - अनुभूति होती है, निर्जर] नहीं होती। निर्जरा अकर्म की होती है । वेदना के बाद कर्म-परमाणुत्रों का कर्मत्व नष्ट हो जाता है, फिर निर्जरा होती है १०८
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कोई फल डाली पर पक कर टूटता है, और किसी फल को प्रयन से पकाया जाता है । पकते दोनों हैं, किन्तु पकने की प्रक्रिया दोनों की भिन्न है। जो सहज गति से पकता है, उसका पाक-काल लम्बा होता है और जो प्रयत्न - से पकता है, उसका पाक - काल छोटा हो जाता है। कर्म का परिपाक भी ठीक इसी प्रकार होता है। निश्चित काल मर्यादा से जो कर्म परिपाक होता है, Best fनर्जरा को faपाकी निर्जरा कहा जाता है। यह श्रहेतुक निर्जरा है इसके लिए कोई नया प्रयक्ष नहीं करना पड़ता, होता है और न अधर्म ।
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इसलिए इसका हेतु न धर्म
निश्चित काल मर्यादा से पहले शुभ योग के व्यापार से कर्म का परिपाक होकर जो निर्जरा होती है, उसे श्रविपाकी निर्जरा कहा जाता है । यह सहेतुक निर्जरा है। इसका हेतु शुभ प्रयत्न है । वह धर्म है। धर्म-हेतुक निर्जरा नव-तत्त्वों में सातवां तत्त्व है। मोक्ष इसीका उत्कृष्ट रूप है। कर्म की पूर्ण निर्जरा ( बिलय ) जो है, वही मोक्ष है। कर्म का अपूर्ण विलय निर्जरा है। दोनों में मात्रा भेद है, स्वरूप मेद नहीं । निर्जरा का अर्थ है--- 1 विकास या स्वभावोदय १०९ । श्रमेदोपचार की दृष्टि से स्वभावोदय के areit को भी निर्जरा कहा जाता है " । इसके बारह प्रकार इसी दृष्टि श्राधार पर किये गये है १११ । इसके सकाम और काम- इन दो मेदों का
-आत्मा का