Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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... जैन दर्शन के मौलिक तत्व [१५ कर्म अशुभ रूप में बन्धता है और अशुभ रूप में ही उदित होता है, वह अशुभ और अशुभ-विपाक वाला होता है। कर्म के बन्ध और उदय में जो यह अन्तर आता है, उसका कारण संक्रमण (बध्यमान कर्म में कर्मान्तर का प्रवेश) है।
जिस अध्यवसाय से जीव कर्म-प्रकृति का बन्ध करता है, उसकी तीक्ता के कारण वह पूर्व-बद्ध सजातीय प्रकृति के दलिकों को वध्यमान प्रकृति के दलिकों के साथ संक्रान्त कर देता है, परिणत या परिवर्तित कर देता है वह संक्रमण है।
संक्रमण के चार प्रकार हैं-(१) प्रकृति-संक्रम (२) स्थिति संक्रम (३) अनुभाव संक्रम (1) प्रदेश-संक्रम १०५॥
प्रकृति संक्रम से पहले बन्धी हुई प्रकृति (कर्म-स्वभाव) वर्तमान में बंधने वाली प्रकृति के रूप में बदल जाती है। इसी प्रकार स्थिति, अनुभाव और प्रदेश का परिवर्तन होता है।
ये चारों--(अपवर्तन, उद्वर्तन, उदीरणा और संक्रमण ) उदयावलिका ( उदय क्षण ) ये बहिर्भूत कर्म-पुद्गलों के ही होते हैं। उदयावलिका में प्रविष्ट कर्म-पुद्गल के उदय में कोई परिवर्तन नहीं होता। अनुदित कर्म के उदय में परिवर्तन होता है। पुरुषार्थ के सिद्धान्त का यही ध्रुव श्राधार है। यदि यह नहीं होता तो कोरा नियतिवाद ही होता।
वेदना
गौतम-भगवन् ! अन्ययूथिक कहते है-सब जीव एवम्भूत बेदना (जैसे कर्म बाधा वैसे ही ) भोगते हैं-यह कैसे है ? __ भगवान् गौतम ! अन्ययूथिक जी एकान्त कहते हैं, वह मिथ्या है। मैं यूं कहता हूँ-कई जीव एवम्भूत-वेदना भोगते हैं और कई अन्-एवम्भूत वेदना भी भोगते हैं।
गौतम-भगवन् ! यह कैसे ?
भगवान-गौवम ! जो जीव किये हुए कर्मों के अनुसार ही वेदना भोगते हैं, वे एवम्भूत वेदना भोगते हैं और जो जीव किए हुए कर्मों से अन्यथा भी वेदना भोगते हैं वे अन्-एवम्भूत वेदना भोगते है."