Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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१३) जैन दर्शन के मौलिक तत्व • नहीं जानता वही पुण्य को उपादेय और पाप को हेय मानता है । निश्चय दृष्टि
से ये दोनों हेय हैं । __पुण्य की हेवता के बारे में जैन-परम्परा एक मत है। उसकी उपादेयता में विचार-भेद भी है। कई प्राचार्य उसे मोक्ष का परम्पर-हेतु मान क्वचित् उपादेय भी मानते हैं ६४ । कई प्राचार्य उसे मोक्ष का परम्पर हेतु मानते हुए भी उपादेय नहीं मानते। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य और पाप का आकर्षण करनेवाली विचार-धारा को पर समय माना है ६५।
योगीन्दु कहते हैं-"पुण्य से वैभव, वैभव से अहंकार, अहंकार से बुद्धिनाश और बुद्धि-नाश से पाप होता है।" इसलिए हमें वह नहीं चाहिए ६६ ।
टोकाकार के अनुसार यह क्रम उन्हीं के लिए है, जो पुण्य की श्राकांक्षा (निदान) पूर्वक तप तपने वाले हैं। आत्म-शुद्धि के लिए, तप तपने वालों के अवांछित पुण्य का आकर्षण होता है ६७ । उनके लिए यह क्रम नहीं है-वह उन्हें बुद्धि-विनाश की और नहीं ले जाता ६८ ।
पुण्य काम्य नहीं है। योगीन्दु के शब्दों में-"व पुण्य किस काम के, जो राज्य देकर जीव को दुःख परम्परा की ओर ढकेल दे। आत्म-दर्शन की खोज में लगा हुआ व्यक्ति मर जाए-यह अच्छा है, किन्तु प्रात्म-दर्शन से विमुख होकर पुण्य चाहे-वह अच्छा नहीं है ।"
आत्म-साधना के क्षेत्र में पुण्य की सीधी उपादेयता नहीं है, इम दृष्टि से पूर्ण सामञ्जस्य है। मिश्रण नहीं होता ___पुण्य और पाप के परमाणुश्रा के आकर्षण-हेतु अलग-अलग हैं। एक ही हेतु से दोनों के परमाणुओं का आकर्षण नहीं होता। आत्मा के परिणाम या तो शुभ होते हैं या अशुभ। किन्तु शुभ और अशुभ दोनों एक साथ नहीं होते। कोरा पुण्य
कई श्राचार्य पाप कर्म का विकर्षण किए बिना ही पुण्य कर्म का आकर्षण होना मानते हैं। किन्तु यही चिन्तनीय है। प्रवृत्ति मात्र में आकर्षण और