Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
ऋजुता आदि-आदि पुण्य-बन्ध के हेतु है । ये सत्प्रवृत्ति रूप होने के कारण धर्म है।
सिद्धान्त चक्रवती नेमिचन्द्राचार्य ने शुभभावयुक्त जीव को पुण्य और अशुभभावयुक्त जीव को पाप कहा है । अहिंसा आदि व्रतों का पालन करना शुभोपयोग है। इसमें प्रवृत्त जीव के शुभ कर्म का जो बन्ध होता है, वह पुण्य है। अभेदोपचार से पुण्य के कारणभूत शुभोपयोग प्रवृत्त जीव को ही पुण्यरूप कहा गया है।
इसलिए अमुक प्रवृत्ति में धर्म या अधर्म नहीं होता, केवल पुण्य या पाप होता है, यह मानना संगत नहीं। कहीं-कहीं पुण्य हेतुक सत्प्रवृत्तियों को भी पुण्य कहा गया है । यह कारण में कार्य का उपचार, विवक्षा की विचित्रता अथवा सापेक्ष (गौण-मुख्य रूप ) दृष्टिकोण है। तात्पर्य में जहाँ पुण्य है, वहाँ सत्प्रवृत्तिरूप धर्म अवश्य होता है। इसी बात को पूर्ववती प्राचार्यों ने इस रूप में समझाया है कि "अर्थ और काम-ये पुण्य के फल हैं। इनके लिए दौड़धूप मन करो । अधिक से अधिक धर्म का आचरण करो। क्योंकि उसके बिना ये भी मिलने वाले नहीं हैं। अधर्म का फल दुर्गति है। धर्म का मुख्य फल आत्म-शुद्धि-मोक्ष है। किन्तु मोक्ष न मिलने तक गौण फल के रूप में पुण्य का बन्ध भी होता रहता है, और उससे अनिवार्यतया अर्थ, काम आदिआदि पौद्गलिक सुख-साधनों की उपलब्धि भी होती रहती है । इसीलिए यह प्रसिद्ध सूक्ति है-"सुखं हि जगतामेकं काम्यं धर्मेण लभ्यते।"
महाभारत के अन्त में भी यही लिखा है।
"अरे भुजा उठाकर मैं चिल्ला रहा हूँ, पर कोई भी नहीं सुनता। धर्म से ही अर्थ और काम की प्राति होती है। तब तुम उसका आचरण क्यों नहीं करते हो "
योगसूत्र के अनुसार भी पुण्य की उत्पत्ति धर्म के साथ ही होती है, यही फलित होता है। जैसे-धर्म और अधर्म-थे क्लेशमूल है । इन मूलसहित क्लेशाशय का परिपाक होने पर उनके तीन फल होते है जाति, आयु और भोग। ये दो प्रकार के है-"सुखद और दुःखद। जिनका हेतु पुण्य होता है, बे सुखद और जिनका हेतु पाप होता है, के दुःखद होते हैं।" इससे फलित