Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
जीव जो कुछ माहार आदि पुदगल-समूह का ग्रहण करता है, वह तत्शरीरस्थ शेष सभी जीवों के उपभोग में आता है और बहुत सारे जीव जिन पुद्गलों का ग्रहण करते हैं, वे एक जीव के उपभोग्य बनते हैं ०" उनके आहार-विहार, उछवास-निश्वास, शरीर निर्माण और मौत-ये सभी साधारण कार्य एक साथ होते हैं"। साधारण जीवों का प्रत्येक शारीरिक कार्य साधारण होता है । पृथक्-शरीरी मनुष्यों के कृत्रिम संघों में ऐसी साधारणता कभी नहीं पाती। साधारण जीवों का स्वाभाविक संघात्मक जीवन साम्यवाद का उत्कृष्ट उदाहरण है।
जीव अमूर्त है, इसलिए वे क्षेत्र नहीं रोकते। क्षेत्र-निरोध स्थूल पौद्गलिक वस्तुएं ही करती हैं। साधारण जीवों के स्थूल शरीर पृथक-पृथक नहीं होते। जो-जो निजी शरीर हैं, वे सूक्ष्म होते हैं, इसलिए एक सुई के अममाग जितने से छोटे शरीर में अनन्त जीव समा जाते हैं।
सुई की नोक टिके उतने लक्ष्य पाक तेल में एक लाख औषधियों की अस्तिता होती है। सब औषधियों के परमाणु उसमें मिले हुए होते हैं। इससे अधिक सूक्ष्मता आज के विज्ञान में देखिए___ रसायन शास्त्र के पण्डित कहते हैं कि पाल्पीन के सिरे के बराबर बर्फ के टुकड़े में १०,००,००,००,००,००,००,००,००० अणु हैं। इन उदाहरणों को देखते हुए साधारण जीवों की एक शरीराश्रयी स्थिति में कोई संदेह नहीं होता। आग में तपा लोहे का गोला अमिमय होता है, वैसे साधारण वनस्पतिशरीर जीवमय होता है। साधारण वनस्पति जीवों का परिमाण
लोकाकाश के असंख्य प्रदेश हैं। उसके एक-एक आकाश प्रदेश पर एकएक निगोद-जीव को रखते चले जाइए। वे एक लोक में नहीं समायेंगे, दो. चार में भी नहीं । वैसे अनन्त लोक आवश्यक होंगे । इस काल्पनिक संख्या से उनका परिमाण समझिए। उनकी शारीरिक स्थिति संकीर्ण होती है। इसी कारण वे ससीम लोक में समा रहे हैं। प्रत्येक वनस्पति
प्रत्येक वनस्पति जीवों के शरीर पृथक-पृथक होते हैं। प्रत्येक जीव अपने