Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
इनमें चार कोटि की पुद्गल वर्गणाए चेतना और आत्म-शक्ति की आषारक, विकारक और प्रतिरोधक है। चेतना के दो रूप हैं (१) शान-जानना वस्तु स्वरूप का विमर्षण (२) दर्शन - साक्षात् करना - वस्तु का स्वरूप ग्रहण । शान और दर्शन के श्रावारक पुदगल क्रमशः 'ज्ञानावरण' और 'दर्शनावरण' कहलाते हैं। आत्मा को विकृत बनाने वाले पुद्गलों की संज्ञा 'मोहनीय' है आत्म-शक्ति का प्रतिरोध करने वाले पुद्गल अन्तराय कहलाते हैं। ये चार घाति कर्म हैं। वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु-ये चार अघाति कर्म हैं । ये शुभ-अशुभ पौद्गलिक दशा के निमित्त हैं।
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चार कोटि की वर्गणाए जीवन-निर्माण और अनुभूतिकारक है। जीबन का अर्थ है श्रात्मा और शरीर का सहभाव । ( १ ) शुभ-अशुभ शरीर का निर्माण करने वाली कर्म-वर्गणाए नाम (२) शुभ-अशुभ जीवन को बनाए रखने वाली कर्म वर्गणाए 'श्रायुष्य' (३) व्यक्ति को सम्माननीय और सम्माननीय बनाने वाली कर्म वर्गणाए 'गोत्र' (४) सुख-दुःख की अनुभूति कराने वाली कर्म-वर्गणा' 'वेदनीय' कहलाती है। तीसरी व्यवस्था काल मर्यादा की है। प्रत्येक कर्म आत्मा के साथ निश्चित समय तक ही रह सकता है। स्थिति पकने पर वह आत्मा से अलग जा पड़ता है। यह स्थिति बन्ध है । चौथी अवस्था 1 फल-दान शक्ति की है। इसके अनुसार उन पुद्गलों में रस की तीव्रता और मन्दता का निर्माण होता है । यह अनुभाव बन्ध है ।
बन्ध के चारों प्रकार एक साथ ही होते हैं । कर्म की व्यवस्था के ये चारों प्रधान श्रंग है । आत्मा के साथ कर्म पुद्गलों के आश्लेष या एकीभाव की दृष्टि से 'प्रदेश बन्ध' सबसे पहला है। इसके होते ही उनमें स्वभाव निर्माण, काल मर्यादा और फलशक्ति का निर्माण हो जाता है। इसके बाद अमुकअमुक स्वभाव, स्थिति और रस शक्ति वाला पुद्गल समूह अमुक-अमुक परिमाण में बंट जाता है - यह परिमाण - विभाग भी प्रदेश बन्ध है । बन्ध के वर्गी करण का मूल बिन्दु स्वभाव निर्माण है। स्थिति और रस का निर्माण उसके साथ-साथ हो जाता है। परिमाण विभाग इनका अन्तिम विभाग है। बन्ध की प्रक्रिया
आत्मा में अनन्तवीर्य (सामर्थ्य) होता है। उसे लब्धि-वीर्य कहा जाता है।