Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
सकता है। जाति के विभाजक नियमों का अतिक्रमण नहीं हो सकता । इसी प्रकार जो जीव स्वार्जित कर्म - पुद्गलों की प्रेरणा से जिस जाति में जन्म लेता है, उसी (जाति) के आधार पर उसके शरीर, संहनन, संस्थान ज्ञान आदि का निर्णय किया जा सकता है, अन्यथा नहीं ।
बाहरी स्थितियों का प्राणियों पर प्रभाव होता है । किन्तु उनकी आनुवंशिकता में वे परिवर्तन नहीं ला सकतीं। प्रो० डार्लिंगटन के अनुसार-"जीवों की बाहरी परिस्थितियां प्रत्यक्ष रूप से उनके विकास क्रम को पूर्णतया निश्चित नहीं करतीं। इससे यह साबित हुआ कि मार्क्स ने अपने और डार्बिन के मतों में जो समानान्तरता पाई थी, वह बहुत स्थायी और दूरगामी नहीं थी । विभिन्न स्वाभावों वाले मानव-प्राणियों के शरीर में बाह्य और आन्तरिक भौतिक प्रभेद मौजूद होते हैं। उसके भीतर के भौतिक प्रभेद के आधार को ही आनुवंशिक या जन्मजात कहा जाता है । इस भौतिक
न्तरिक प्रभेद के आधारों का भेद ही व्यक्तियों, जातियों और वर्गों के भेदो का कारण होता है । ये सब भेद बाहरी अवयवों में होने वाले परिवर्तनों का ही परिणाम हैं। इन्हें जीवधारी देह के पहलुनों के सिवाय कोई बाहरी शक्ति नष्ट नहीं कर सकती । आनुवंशिकता के इस असर को अच्छे भोजन, शिक्षा अथवा सरकार के किसी भी कार्य से चाहे वह कितना ही उदार या क्रूर क्यों न हो, सुधार या उन्नत करना कठिन है ।
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अनुवंशिकता के प्रभाव को इस नए आविष्कार के बाद 'जेनेटिक्स का विज्ञान' कहा गया १७१
हमें दो श्रेणी के प्राणी दिखाई देते हैं। एक श्रेणी के गर्भज हैं, जो मातापिता के शोणित, रज और शुक्र-बिन्दु के मेल से उत्पन्न होते हैं। दूसरी श्रेणी के सम्मूमि हैं, जो गर्भाधान के बिना स्व अनुकूल सामग्री के सान्निध्य मात्र से उत्पन्न हो जाते हैं
एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय के जीव सम्मूमि और तिर्यञ्च जाति के ही होते हैं। पंचेन्द्रिय जीव सम्मूर्त्तिक्रम और गर्भज दोनों प्रकार के होते हैं। इन दोनो ( सम्मूमि और गर्भज पंचेन्द्रिय) की दो जातियां हैं-