Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
इसके अनुसार पिता-माता के अजित गुण सन्तान में संक्रान्त होते हैं। वही गुण वंशानुक्रम से पीढी-दरपीढ़ी धीरे-धीरे उपस्थित होकर सुदीर्घ काल में सुस्पष्ट आकार धारण करके एक जाति से अभिनव जाति उत्पन्न कर देते हैं । डार्बिन के मतानुसार पिता-माता के प्रत्येक श्रंग से सूक्ष्मकला या अवयव निकलकर शुक्र और शोणित में संचित होते हैं। शुक्र और शोणित से सन्तान - का शरीर बनता है। अतएव पिता-माता के उपार्जित गुण सन्तान में संक्रान्त होते हैं ।
इसमें सत्यांश है, किन्तु वस्तुस्थिति का यथार्थ चित्रण नहीं । एक सन्तति में स्वतः बुद्धिगम्य कारणों के बिना भी परिवर्तन होता है । उस पर मातापिता का भी प्रभाव पड़ता है, जीवन-संग्राम में योग्यतम विजयी होता है, यह सच है किन्तु यह उससे अधिक सच है कि परिवर्तन की भी एक सीमा है । वह समान जातीय होता है, विजातीय नहीं । द्रव्य की सत्ता का अतिक्रम नहीं होता, मौलिक गुणों का नाश नहीं होता विकास या नई जाति उत्पन्न होने का अर्थ है कि स्थितियों में परिवर्तन हो, वह हो सकता है। किन्तु तिर्यञ्च पशु, पक्षी या जल-जन्तु आदि से मनुष्य जाति की उत्पत्ति नहीं हो सकती ।
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प्राणियों की मौलिक जातियां ५ हैं। वे क्रम विकास से उत्पन्न नहीं, स्वतन्त्र हैं। पांच जातियां योग्यता की दृष्टि से क्रमशः विकसित है। किन्तु पूर्व योग्यता से उत्तर योग्यता सृष्ट या विकसित हुई ऐसा नहीं । पंचेन्द्रिय प्राणी की देह से पंचेन्द्रिय प्राणी उत्पन्न होता है । वह पंचेन्द्रिय ज्ञान का विकास पिता से न्यून या अधिक पा सकता है। पर यह नहीं हो सकता कि वह किसी चतुरिन्द्रिय से उत्पन्न हो जाए या किसी चतुरिन्द्रिय को उत्पन्न कर दे। सजातीय से उत्पन्न होना और सजातीय को उत्पन्न करना, यह गर्भजप्राणियों की निश्चित मर्यादा है।
विकासवाद जाति विकास नहीं, किन्तु जाति विपर्यास मानता है उसके अनुसार इस विश्व में कुछ-न-कुछ विशुद्ध से तप्त पदार्थ ही चारों ओर भरे पड़े थे। जिनकी गति और उष्णता में क्रमशः कमी होते हुए बाद में उनमें से सर्व अहीं और हमारी इस पृथ्वी की भी उत्पत्ति हुई, इसी प्रकार जैसे-जैसे