Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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शरीर का निर्माण स्वयं करता है। उनमें पराश्रयता भी होती है। एक घटक htta में असंख्य जीव पलते हैं। वृक्ष के घटक बीज में एक जीव होता है। उसके श्राश्रय में पत्र, पुष्प और फूल के असंख्य जीव उपजते हैं। बीजावस्था के सिवाय वनस्पति-जीव संघातरूप में रहते हैं। श्लेष्म-द्रव्यमिश्रित सरसों के दाने अथवा तिलपपड़ी के तिल एक रूप बन तब भी उसकी सत्ता पृथक-पृथक रहती है। प्रत्येक वनस्पति के यही बात है । शरीर की संपात दशा में भी उनकी मत्ता स्वतन्त्र रहती है । प्रत्येक वनस्पति जीवों का परिमाण
जाते हैं | शरीरों की भी
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narrण वनस्पति जीवों की भांति प्रत्येक वनस्पति का एक-एक जीव लोकाकाश के एक अंक प्रदेश पर रखा जाए तो ऐसे असंख्य लोक वन जाए । यह लोक असंख्य श्राकाश प्रदेश वाला है, ऐसे असंख्य लोकों के जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतने प्रत्येक शरीरी वनस्पति जीव है १४ । * क्रम विकासवाद के मूल सूत्र
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डार्विन का सिद्धान्त चार मान्यताओं पर आधारित है(१) पितृ- नियमस-समान में से समान संतति की उत्पत्ति | (२) परिवर्तन का नियम - निश्चित दशा में सदा परिवर्तन होता है, उसके विरुद्ध नहीं होता । वह ( परिवर्तन ) सदा आगे बढ़ता है, पीछे नहीं हटता । उससे उन्नति होती है, अवनति नहीं होती ।
(३) अधिक उत्पत्ति का नियम - यह जीवन-संग्राम का नियम है 1 अधिक होते हैं, वहाँ परस्पर संघर्ष होते हैं। यह अस्तित्व को बनाये रखने की लड़ाई है ।
(४) योग्य विजय - अस्तित्व की लड़ाई में जो योग्य होता है विजय उसी के हाथ में श्राती है । स्वाभाविक चुनाव में योग्य को ही अवसर मिलता है ।
प्रकारान्तर से इसका वर्गीकरण यों भी हो सकता है :(१) स्वतः परिवर्तन
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(२) वंश-परम्परा द्वारा अगली पीढ़ी में परिवर्तन । (३) जीवन-संघर्ष में योग्यतम अवशेष
* इसका पूरा विवरण यन्त्र-पृष्ठ में देखिए ।