Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं १०५ विजातीय सम्बन्ध विचारणा की दृष्टि से आत्मा के साथ सर्वाधिक पनिष्ट सम्बन्ध कर्म पुद्गलों का है। समीपवती का जो प्रभाव पड़ता है, वह एवती का नहीं पड़ता। परिस्थिति दूरवी घटना है। वह कर्म की उपेक्षा कर आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकती। उसकी पहुँच कम संघटना तक ही है। उससे कर्म संघटना प्रभावित होती है फिर उससे अात्मा। जो परिस्थिति कर्म-संस्थान को प्रभावित न कर सके, उसका आत्मा पर कोई असर नहीं होता।
बाहरी परिस्थिति सामूहिक होती है। कर्म को वैयक्तिक परिस्थिति कहा जा सकता है। यही कर्म की सत्ता का स्वयंभू-प्रमाण है। परिस्थिति
काल, क्षेत्र, स्वभाव, पुरुषार्थ, नियति और कर्म की सह-स्थिति का नाम ही परिस्थिति है।
काल से ही सब कुछ होता है, यह एकान्त दृष्टि मिथ्या है। क्षेत्र " " " " " " " " " " " स्वभाव से ,, , , , , , , , , , पुरुषार्थ से , " , " " " " " " नियति , , , , , , , " " " " कर्म , , , , , , , , , , , काल से भी कुछ बनता है, यह सापेक्ष-दृष्टि सत्य है। क्षेत्र (स्थान ) से भी कुछ बनता है, यह सापेक्ष दृष्टि सत्य है। स्वभाव से भी , , , , , , , " पुरुषार्थ से भी , , , , , " " " नियति , , , , , , , " " " कर्म , , , , , , , , , ,
वर्तमान के जैन मानस में काल-मर्यादा, क्षेत्र-मर्यादा, स्वभाव-मर्यादा, पुरुषार्थ मर्यादा और नियति-मर्यादा का जैसा स्पष्ट विवेक या अनेकान्त-दर्शन है, वैसा कर्म-मर्यादा का नहीं रहा है। जो कुछ होता है, वह कर्म से ही होता है-ऐसा घोष साधारण हो गया है। यह एकान्तबाद सच नहीं है। मात्म-गुण का विकास कर्म से नहीं होता, कर्म के विलय से होता है।