Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व १८९ (१) मनुष्य-शरीर में समान जातीय मासांकुर पैदा होते है, वैसे ही पृथ्वी में भी समान जातीय अंकुर पैदा होते हैं, इसलिए वह सजीव है।
(२) अण्डे का प्रवाही रस सजीव होता है, पानी मी प्रवाही है, इसलिए सजीव है। गर्भकाल के प्रारम्भ में मनुष्य तरल होता है, वैसे ही पानी तरल है, इसलिए सजीव है। मूत्र आदि तरल पदार्थ शस्त्र-परिणत होते हैं, इसलिए वे निर्जीव होते हैं।
(३) जुगनू का प्रकाश और मनुष्य के शरीर में जरावस्था में होने वाला जीव संयोगी है। वैसे ही अमि का प्रकाश और ताप जीव-संयोगी है। आहार के भाव और अमाव में होने वाली वृद्धि और हानि की अपेक्षा मनुष्य और अग्नि की समान स्थिति है। दोनों का जीवन वायु सापेक्ष है। वायु के बिना मनुष्य नहीं जीता, वैसे अमि भी नहीं जीती । मनुष्य में जैसे प्राण वायु का ग्रहण और विषवायु का उत्सर्ग रहता है, वैसे अमि में भी होता है। इसलिए वह मनुष्य की भांति सजीव है। सूर्य का प्रकाश भी जीव-संयोगी है। सूर्य, 'पातप' नाम कर्मोदययुक्त पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर-पिण्ड है।
(४) वायु में व्यक्त-माणी की भांति अनियमित स्वप्रेरित गति होती है। इससे उसकी सचेतनता का अनुमान किया जा सकता है। स्थूल-पुद्गल स्कन्धों में अनियमित गति पर-प्रेरणा से होती है, स्वयं नहीं।
ये चार जीव-निकाय हैं। इनमें से प्रत्येक में असंख्य-असंख्य जीव हैं। मिट्टी का एक छोटा-सा ढेला, पानी की एक बून्द, अमि का एक कण, वायु का एक सूक्ष्म भाग-ये सब असंख्य जीवों के असंख्य-शरीरों के पिण्ड है। इनके एक जीव का एक शरीर अति सूक्ष्म होता है, इसलिए वह दृष्टि का विषय नहीं, बनता। हम इनके पिण्डीभूत असंख्य शरीरों को ही देख सकते हैं।
(५) वनस्पति का चैतन्य पूर्ववर्ती निकायों से स्पष्ट है। इसे जैनेतर दार्शनिक भी सजीव मानते आये हैं और वैज्ञानिक जगत् में भी इसके चैतन्य सम्बन्धी विविध परीक्षण हुए हैं.. बेतार की तरंगों (Wireless Waves) के बारे में अन्वेषण करते समय जगदीशचन्द्र बसु को यह अनुभव हुछा कि धातुओं के परमाणु पर भी अधिक दबाव पड़ने से रुकावट आती है, और उन्हें