Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं स्थूल शरीर-रहित प्रारमा की गति होती है। उसका नाम 'अन्तराल-गति' है। यह दो प्रकार की होती है । ऋतु और वक्र । मृत्युस्थान से जन्म स्थान सरल. रेखा में होता है, वहाँ मात्मा की गति ऋतु होती है। और वह विषम रेखा में होता है, वहाँ गति वा होती है। ऋजु गति में सिर्फ एक समय लगता है। उसमें आत्मा को नया प्रयन नहीं करना पड़ता। क्योंकि जब वह पूर्व शरीर छोड़ता है तब उसे पूर्व शरीर जन्य वेग मिलता है और वह धनुष से छूटे हुए बाण की तरह सीधे ही नए जन्म स्थान में पहुंच जाता है। बक्रगति में घुमाव करने पड़ते हैं। उनके लिए दूसरे प्रयत्नों की आवश्यकता होती है । घूमने का स्थान आते ही पूर्व-देह जनित वेग मन्द पड़ जाता है और सूक्ष्म शरीर-कार्मण शरीर द्वारा जीव नया प्रयत्न करता है। इसलिए उसमें समय संख्या बढ़ जाती है। एक घुमाव वाली वक्रगति में दो समय, दो घुमाव वाली में तीन समय और तीन घुमाव वाली में चार समय लगते हैं। इसका तर्क-संगत कारण लोक संस्थान है। सामान्यतः यह लोक ऊर्ध्व, अधः, तिर्यग-यों तीन भागों में तथा जीवोत्पत्ति की अपेक्षा त्रस नाड़ी और स्थावर नाड़ी, इस प्रकार दो भागी में विभक्त है।
द्विसामयिक गति
ऊर्ध्व लोक की पूर्व दिशा से अधोलोक की पश्चिम दिशा में उत्पन्न होने वाले जीव की गति एक वक्रादिसामयिकी होती है। पहिले समय में समश्रेणी में गमन करता हुआ जीव अधोलोक में जाता है और दूसरे समय में तिर्यगवती अपने अपने उत्पत्ति-क्षेत्र में पहुँच जाता है।
त्रि सामयिक गति
ऊर्ध्व दिशावर्ती श्रमिकोण से अधोदिशावती वायव्य कोण में उत्पन्न होने वाले जीव की गति द्विवकात्रिसामयिकी होती है। पहिले समय में जीव समभेणी गति से नीचे आता है, दूसरे समय में तिरछा चल पश्चिम दिशा में और तीसरे समय में तिरछा चलकर वायव्य कोण में अपने जन्मस्थान पर पहुँच जाता है। __ स्थावर-नाड़ी गत अधोलोक की विदशा के इस पार से उस पार की स्थावर-नाड़ी गत कई लोक की दिशा में पैदा होने वाले जीव की 'त्रि-बना