Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व (७) लोकालोक-अन्योन्याऽप्रवेश-ऐसा न तो हुना, न भाष्य है और .. न होगा कि लोक अलोक में प्रवेश करे और अलोक लोक में प्रवेश करे ।
(८) लोक और जीवों का आधार-प्राधेय-सम्बन्ध-जितने क्षेत्र का नाम लोक है, उतने क्षेत्र में जीव है और जितने क्षेत्र में जीव है, उतने क्षेत्र का नाम लोक है।
(६) लोक-मर्यादा-जितने क्षेत्र में जीव और पुदगल गति कर सकते हैं, उतना क्षेत्र 'लोक' है और जितना क्षेत्र 'लोक' है उतने क्षेत्र में जीव और युद्गल गति कर सकते हैं।
(१०) अलोक-गति-कारणाभाव-लोक के सब अन्तिम भागों में आबद्ध पार्श्व-स्पृष्ट पुद्गल हैं। लोकान्त के पुद्गल स्वभाव से ही रुखे होते हैं। वे गति में सहायता करने की स्थिति में संघटित नहीं हो सकते । उनकी सहायता के बिना जीव अलोक में गति नहीं कर सकते। विकास और हास
विकास और हास-ये भी परिवर्तन के मुख्य पहलू हैं। एकान्त नित्य-स्थिति में न विकास हो सकता है और न हास। किन्तु जहाँ परिणामी-नित्यत्व की स्थिति है, वहाँ ये दोनों अवश्य होंगे। डार्विन के मतानुसार यह विश्व क्रमशः विकास की ओर बढ़ रहा है। जैन-दृष्टि इसे स्वीकार नहीं करती। विकास और ह्रास जीव और पुद्गल-इन दो द्रव्यों में होता है। जीव का अन्तिम विकास है-मुक्त-दशा। यहाँ पहुँचने पर फिर ह्रास नहीं होता। इससे पहले श्राध्यात्मिक क्रम-विकास की जो चौदह भूमिकाएं हैं, उनमें
आठवीं (क्षपक-श्रेणी ) भूमिका पर पहुँचने के बाद मुक्त बनने से पहले क्षण तक क्रमिक विकास होता है। इससे पहले विकास और हास-ये दोनों चलते हैं। कभी हास से विकास और कभी विकाम से ह्रास होता रहता है। विकास-दशाएं ये हैं:
(१) अव्यवहार राशि......साधारण-वनस्पति (२) व्यवहार राशि.........प्रत्येक वनस्पति (क) एकेन्द्रिय..... साधारण वनस्पति, प्रत्येक वनस्पति, पृथ्वी, पानी,
तेजस्, वायु।