Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
पौद्गलिक स्कन्ध में अनन्त गुण तारतम्य हो जाता है। दृष्टि से एक-एक परमाणु मिलकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध बन वे बिखर कर एक-एक परमाणु बन जाते हैं ।
पुद्गल अचेतन है, इसलिए उसका विकास या ह्रास चैतन्य प्रेरित नहीं होता । जीव के विकास या ह्रास की यह विशेषता है। उसमें चैतन्य होता है, इसलिए उसके विकास हास में बाहरी प्रेरणा के अतिरिक्त आन्तरिक प्रेरणा भी होती है ।
जीव (चैतन्य) श्रौर शरीर का लोलीभूत संश्लेष होता है, इसलिए आन्तरिक प्रेरणा के दो रूप बन जाते हैं - ( १ ) श्रात्म - जनित
( २ ) शरीर-जनित
आत्म-जनित श्रान्तरिक प्रेरणा से आध्यात्मिक विकास होता है और शरीर जनित से शारीरिक विकास ।
शरीर पाँच हैं । उनमें दो सूक्ष्म हैं और तीन स्थूल सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर का प्रेरक होता है। इसकी वर्गणाएं शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की होती हैं | शुभ वर्गणात्रों के उदय से पौद्गलिक या शारीरिक विकास होता है और अशुभ वर्गणाओं के उदय से श्रात्म चेतना का ह्रास, आवरण और शारीरिक स्थिति का भी ह्रास होता है ।
जैन-दृष्टि के अनुसार चेतना और अचेतन पुद् गल संयोगात्मक सृष्टि का विकास क्रमिक ही होता है, ऐसा नहीं है। विकास और हास के कारण
आकार- रचना की
जाता है और फिर
विकास और ह्रास का मुख्य कारण है श्रान्तरिक प्रेरणा या आन्तरिकस्थिति या आन्तरिक योग्यता और सहायक कारण है बाहरी स्थिति । डार्विन 1 का सिद्धान्त बाहरीस्थिति को अनुचित महत्त्व देता है। बाहरी स्थितियां केवल श्रान्तरिक वृत्तियों को जगाती हैं, उनका नये सिरे से निर्माण नहीं करती। चेतन में योग्यता होती है, वही बाहरी स्थिति का सहारा पा विकसित हो जाती है ।
(१) अन्तरंग योग्यता और बहिरंग अनुकूलता - कार्य उत्पन्न होता है । (२) अन्तरंग अयोग्यता और बहिरंग अनुकूलता कार्य उत्पन्न नहीं होता ।