Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
सब जीव सम्मूर्च्छन जन्म वाले होते हैं। कई तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तथा मनुष्य के मल, मूत्र, श्लेष्म श्रादि चौदह स्थानों में उत्पन्न होने वाले पच्चेन्द्रिय मनुष्य भी सम्मूर्च्छनज होते हैं। स्त्री-पुरुष के रज-बीर्य से जिनकी उत्पत्ति होती है, उनके जन्म का नाम 'गर्भ' है । अण्डज, पोतज और जरायुज पञ्चेन्द्रिय प्राणी गर्भज होते हैं। जिनका उत्पत्ति-स्थान नियत होता है, उनका जन्म 'उपपात' कहलाता है । देव और नारक उपपात जन्मा होते हैं । नारकों के लिए कुम्भी ( छोटे मुंह की कुण्डे ) और देवता के लिए शय्याएँ नियत होती है। प्राणी सचित्त और चित्त दोनों प्रकार के शरीर में उत्पन्न होते हैं । प्राण और पर्याप्ति
आहार, चिन्तन, जल्पन आदि सब क्रियाएं प्राण और पर्याप्त—इन दोनों के सहयोग से होती हैं । जैसे—बोलने में प्राणी का श्रात्मीय प्रयत्न होता है, वह प्राण है 1 उस प्रयत्न के अनुसार जो शक्ति भाषा योग्य पुद्गलों का संग्रह करती है, वह भाषा पर्याप्त है । श्राहार पर्याप्त और आयुष्य -प्राण, शरीर पर्याप्ति और काय प्राण, इन्द्रिय-पर्याप्ति और इन्द्रिय-प्राण, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास- प्राण, भाषा-पर्याप्ति और भाषा प्राण, मन पर्याप्ति और मन-प्राण, ये परस्पर सापेक्ष हैं। इससे हमें यह निश्चिय होता है कि प्राणियों की शरीर के माध्यम से होने वाली जितनी क्रियाएं हैं, वे सब आत्म-शक्ति और पौद्गलिक शक्ति दोनों के पारस्परिक सहयोग से ही होती हैं । प्राण-शक्ति
प्राणी का जीवन प्राण-शक्ति पर अवलम्बित रहता है । प्राण शक्तियां
दस हैं।
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(१) स्पर्शन-इन्द्रिय-प्राण ।
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( २ ) रसन
( ३ ) घाण
( ४ ) चक्षु ( ५ ) श्रोत्र.
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